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संदंश (अन्तराय)] ११२५, जैन-लक्षणावली
[संभावनासत्य संज्वलना: क्रोध-मान-माया-लोभाः। अथवा येषु संनिवेश-विषयाधिपस्य अवस्थानं संनिवेशः । सत्स्वपि संयमो ज्वलति दीप्ति प्राप्नोति प्रतिबन्धं (धव. प. १३, पृ. ३३६) । न लभन्ते ते संज्वलनाः क्रोव-मान-माया-लोभा: देश के अधिपति का जहां प्रवस्थान रहता है उसे उद्यन्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)।
संनिवेश कहते हैं। १ संज्वलन' में 'सं' का अर्थ एकीभाव है, तदनुसार संन्यास-अयोग्यहान-योग्योपादानलक्षणः संन्याजो क्रोध-मानादि संयम के साथ एकीभूत होकर सः। प्रारा. सा. टी. २४) । जलते रहते हैं --प्रकाशित होते रहते हैं-उन्हें अयोग्य को छोड़ना और योग्य को ग्रहण करना, संज्वलन क्रोधादि कषाय कहा जाता है । अथवा इन यह संन्यास का लक्षण है। संज्वलन कषायों के रहते हुए भी संयम प्रकाशमान संप्रच्छनी भाषा-१. निरोध [धे] वेदनास्ति भवरहता है, इससे भी उन्हें संज्वलन कहा जाता है। तां न वेति प्रश्नवाक् संपुच्छणी। (भ. प्रा. विजयो. २ कुछ परीषहादि के उपस्थित रहने पर भी जो ११६५)। २. संप्रच्छनी यथा त्वां किंचित् पृच्छाचारित्र को प्रकाशित रखते हैं--- उसे नष्ट नहीं होने मि। (भ. प्रा. मला. ११९५) । देते हैं --- उन्हें संज्वलन कषाय कहते हैं। १ वन्दीगृह में प्रापको वेदना होती है या नहीं, इस संदंश (अन्तराय)-xxx संदंश: श्वादि- प्रकार के प्रश्नरूप वचन को संप्रच्छनी भाषा कहते दंशने ॥ (अन. ध. ५-५४)। कुत्ते प्रादि के द्वारा काट लेने पर संदंश नाम का संप्राप्त्युदय--१. संपत्तिउदयो णाम सभावेण भोजन का अन्तराय होता है।
कालपत्तं दलितं वेदिज्जति, सभावोदय इत्यर्थः । संदिग्ध -संदिग्धं स्थाणुर्वा पुरुषो वेत्यनवधारणे- (कर्मप्र. चू. स्थिति. उदी. २६)। २. यत् कर्मनोभयकोटिपराशि संशयाकलितं वस्तु । (प्रमेयर. दलिक कालप्राप्तं सत् अनुभूयते स संप्राप्त्युदयः । ३-१७)।
(कर्मप्र. मलय. वृ. स्थिति उद्. २६)। यह स्थाणु है या पुरुष, इनमें से किसी एक का १स्वभावतः काल के प्राप्त होने पर जो दलिक निश्चय न होने से उभय कोटियों की विषयभत उदय को प्राप्त होता है उसे संप्राप्त्युदय कहते हैं। संशययुक्त वस्तु को संदिग्ध कहते हैं।
संभवयोग-इंदो मेरु चालइदं समत्थो त्ति एसो संधना-पूर्वगृहीतविस्मृतस्य पुनः संस्थापनं संधना। संभवजोगो णाम । (धव. पु. १०, पृ. ४३४; पु. (व्यव. भा. मलय. व. द्वि. वि. १०२, पृ. ३२)। १४, पृ. ६७)। पूर्व में ग्रहण किये गए तथा पश्चात् विस्मत हुए इन्द्र मेरु पर्वत के चलाने से समर्थ है, इसका नाम को फिर से स्थापित करना, इसका नाम संघना है। सम्भवयोग है। संधिदोष - सन्धिदोषो विश्लिष्टसंहितत्वं सन्ध्य- संभावनासत्य--देखो सम्भावनासत्य । संभावभावो वा। (प्राव. नि. मलय. व. ८८४, पृ. नया असंभवपरिहारपूर्वकं वस्तुधर्मविधिलक्षणया ४८४)।
यत्प्रवृत्तं वचस्तत्संभावनासत्यम् । यथा शक्रो जम्बूविश्लिष्ट पदों में सन्धि का होना अथवा सन्धि का द्वीपं परावर्त येत, परिवर्तयितं शक्नोतीत्यर्थः । (गो. न होना, यह सूत्र का एक सन्धिदोष है । ३२ सूत्र. जी. म.प्र. व जा. प्र. २२४) दोषों में यह अन्तिम है।
असम्भवता का परिहार करते हुए वस्तुधर्म के संध्या -- उदयत्थवणकाले पुव्वावर दिसासु दिस्स- विधानस्वरूप सम्भावना से जो वचन प्रवृत्त होता माणा जो सवणकुसुमसंकाशा संज्झा णाम । (धव. है उसे सम्भावनासत्य कहते हैं । जैसे-इन्द्र जम्बूद्वीप पु. १४, पृ. ३५)।
के परिवर्तन में समर्थ है, इस प्रकार का वचन । सूर्य के उदय और प्रस्त होने के समय में जो क्रम इस वचन में जम्बूद्वीप के परिवर्तित करने कप से पूर्व और पश्चिम दिशाओं में जपाकुसुम के समान शक्ति की असम्भवता का परिहार करते हुए उस प्राकाश में लालिमा फैलती है, इसका नाम सन्ध्या प्रकार की क्रिया से रहित केवल वस्तुधर्म के
विधानरूप सम्भावना को प्रगट किया गया है ।
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