Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 468
________________ संवेग] ११३५, जैन-लक्षणावली [संव्यवहारप्रत्यक्ष मुच्यये ॥ (उपासका. २२६) । १३. शारीरं मानसं ६. रत्नत्रयात्मक धर्मानुष्ठानफलभूततीर्थकराद्यैश्वर्यच बहुविकल्पं प्रियविप्रयोगाप्रियसंयोगेप्सितालाभा- प्रभावतेजोवीर्य-ज्ञान-सुखादिवर्णनारूपं संवेजनीकथा । दिजनितं संसारदुःखं यदतिकष्टं ततो नित्यभीरुता (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३५७) । संवेगः । (चा. सा. पृ. २५)। १४. तय्ये धर्म १ ज्ञान, चारित्र और तप की भावना से जो शक्तिध्वस्तहिंसाप्रपञ्चे, देवे राग-द्वेषमोहादिमुक्ते। साधौ रूप संपत्ति प्रगट होती है उसके निरूपण करने को सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः॥ संवेजनीकथा कहते हैं। २ प्रात्मशरीर, परशरीर, (अमित. श्रा. २-७४)। १५. संवेगो मोक्षाभि- इहलोक और परलोक के भेद से संवेजनीकथा चार लाषः। XXX अन्ये तु संवेग-निर्वेदयोरर्थवि- प्रकार की है। सात धातुमय यह हमारा शरीर पर्यासमाहुः- संवेगो भवविरागः, निर्वेदो मोक्ष- मल-मूत्रादि का स्थान है, अतः अपवित्र है, इस सुखाभिलाष इति । (योगशा. स्वो. विव. २-१५, प्रकार कहने पर श्रोता को संवेग उत्पन्न होता है, प. १८१-८२)। १६. ध्यायतः कर्मविपाकं संसा- इसीलिए इसे प्रात्मशरीरसंवेजनी कथा कहा रासारतामपि । यत्स्याद्विषयवैराग्यं स संवेग इती- जाता है। इसी प्रकार परशरीरसंवेजनी, इहलोकरितः ।। (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६१३) । १७.४ संवेजनी और परलोकसंवेजनी कथानों का भी xx संवेगः । भवभयमनुकम्पा Xxx॥ स्वरूप समझना चाहिए। ४ पुण्यफल को चर्चा को (अन. ध. २-५२)। १८. शारीर-मानसागन्तु- संवेजनीकथा कहते हैं। वेदनाप्रसारात् संसाराद्भयं संवेगः । (त. वृत्ति श्रुत. संवेजनीय रस-वीरिय विउव्वणिड्ढी नाण. १-२); भवदुःखादनिशं भीरुता संवेगः कथ्यते। चरण-दसणाण तह इड्ढी । उवइस्सइ खलु जहियं (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४)। १६. संसाराद्भीरुत्वं कहाइ संवेयणीइ रसो।। (दशवै. नि. २००)। संवेगः। (भावप्रा. टी. ७७)। २०. धर्म धर्मफले तप के सामर्थ्य से वीर्य ऋद्धि, विक्रिया ऋद्धि, च परमा प्रीतिः संवेग: । (कातिके. टी. ३२६)। ज्ञान ऋद्धि, चारित्रऋद्धि और दर्शनऋद्धि प्रादुर्भूत २१. संवेग: परमोत्साहो धर्म धर्गफले चितः। होती है; इत्यादि का जो उपदेश दिया जाता है उसे सधर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥ (लाटीसं. संवेजनीकथा का रस (सार) समझना चाहिए। ३-७६; पंचाध्या. २-४३१) । संव्यवहरणदोष - संववहरणं किच्चा पदादुमिदि १ संसार के दुःख से जो निरन्तर भय होता है, चेल-भायणादीणं । असमिक्ख [क्खि] य ज देयं संववइसका नाम संवेग है। २ संसार से भयभीतता, हरणो हवदि दोसो ॥ (मूला. ६-४८)। प्रारम्भ व परिग्रह में दोषों के देखे जाने से प्रति साधु को प्राहार देने के लिए वस्त्र व वर्तन आदि तथा धर्म और धामिक जन में बहमान; ये संवेग के का शीघ्रता से व्यवहार करके विना देखे जो दिया लक्षण हैं। ३ सिद्धि, देवलोक और उत्तम कुल में जाता है उसे यदि साधु ग्रहण करता है तो वह उत्पत्ति यह संवेग है-इनके निमित्त से संवेग संव्यवहरण नामक प्रशनदोष का भागी होता है। होता है। ६ मोक्ष की अभिलाषा का नाम संवेग है। संव्यवहार--१. समीचीनो व्यवहारः संव्यवहारः, संवेजनी कथा--१. संवेयणी पुण कहा णाण- प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षण: संव्यवहारो भण्यते । (बृ. चरित्तं तव-वीरिय इड्ढिगदा। (भ. प्रा. ६५७)। द्रव्यसं. टी. ५) । २. समीचीनप्रवृत्तिरूपो व्यवहारः २. आय-परसरीरगया इहलोए चेव तह य परलोए। संव्यवहारः । (लघीय. अभय. वृ. ३, पृ. ११)। एसा चउम्विहा खलु कहा उ संवेयणी होइ॥ १ प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप समीचीन व्यवहार को संव्यव(दशवै. नि १६६)। ३. संवेजनी च संसारभय- हार कहते हैं। प्रचयबोधनीम् । (पद्मपु. १०६-६३) । ४. संवेयणी संव्यवहार प्रत्यक्ष-देखो सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष । णाम पुण्णफलसंकहा। Xxxउक्तं च-xx संशय-१. सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषX संवेगिनी धर्मफलप्रपञ्चा XXX ॥ (धव. स्मृतेश्च संशयः । (त. वा. १, ६, ८); अनेकार्थापु. १, पृ. १०५-६)। ५. संवेजनी प्रथयितुं सुकृ- निश्चितापर्युदासात्मकः संशयः xxx । स्थाणुतानुभावम् xxx ॥ (अन. प. ७-८८)। पुरुषाद्यनेकार्थालम्बनसन्निधानादनेकार्थात्मकः संश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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