Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 459
________________ संभिन्नश्रोता] ११२६, जन-लक्षणावलो [संमूर्छन संभिन्नश्रोता-देखो संभिन्नबुद्धि । १. सोदिदिय- द्वादशयोजनविस्तृतस्य चक्रवत्तिकटकस्य युगपत् ब्रुवासुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खउव- णस्य तत्तूर्यसंघातस्य वा युगपदास्फाल्यमानस्य समे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि। सोदुक्कस्सखिदीदो सम्भिन्नान लक्षणतो विधानतश्च परस्परतो विभिबाहिं संखेज्जजोयणपएसे । संठियणर-तिरियाणं नान् जननिवहसमुत्थान् शङ्क-काहल-भेरी-माणकबहुबिहसद्दे समुट्ठते । अक्खर-अणक्खरमए सोदूणं ढक्कादितूर्यसमुत्थान् वा युगपदेव सुबहून् शब्दान् दसदिसासू पत्तक्कं । जं दिज्जदि पडिवयणं तं च्चिय यः शृणोति स सम्भिन्नश्रोता:। (प्राव. नि. मलय. संभिण्णसोदित्तं ॥ (ति. प. ४, ९८४-८६)। व. ६६, पृ. ७८)। २. जो सुणइ सव्वग्रो मुणइ सव्व विसए व सव्व- १ श्रोत्रेन्द्रियश्रुतज्ञानावरण और वीर्यान सोएहिं। सूणइ बहए व सट्टे भिन्ने संभिन्नसोयो उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का सो।। (विशेषा. ७८६; प्राव. नि. मलय. वृ. ६६ उदय होने पर श्रोत्र इन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र के उद.)। ३. द्वादशयोजनायामे नवयोजनविस्तारे बाहर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्यों चक्रघरस्कन्धावारे गज-वाजि-खरोष्ट्र-मनुष्यादीनां और तियंचों के उठते हुए अक्षरात्मक व तपोविशेषबल लाभापादितसर्वप्रदेशश्रोत्रेन्द्रियपरिणा- अनक्षरात्मक बहुत प्रकार के शब्दों को सुनकर जो मात् सर्वेषामेककालग्रहणं संभिन्नश्रोतृत्वम् । (त. दसों दिशाओं में से प्रत्येक में प्रतिवचन दिया जाता वा. ३, ३६, ३) । ४. यः सर्वतः शृणोति स संभि. है, यह संभिन्नश्रोतृत्व ऋद्धिका लक्षण है । २ जो न्नश्रोता, अथवा श्रोतांसि संभिन्नान्येकैकशः सर्व- सभी ओर से सुनता है वह संभिन्नश्रोता कहलाता विषय रस्य परस्परतो वेति संभिन्नश्रोताः, संभिन्नान् वा परस्परतो लक्षणतोऽभिधानतश्च सूबहनपि शब्दान शृणोति संभिन्नश्रोता। (प्राव. नि. हरि. व. ६६)। ५. संभिन्नान् बहुभेदभिन्नान् शब्दान् पृथक् पृथक् है, तथा जो परस्पर भिन्न बहुत से शब्दों के सुनने युगपंच्छण्वन्तीति संभिन्नश्रोतारः। (प्रौपपा. अभय. में समर्थ होता है उसे संभिन्नश्रोता कहा जाता व. १५, पृ. २८)। ६. सं सम्यक् संकर-व्यतिकर- है। ३ विशिष्ट तपश्चरण के बल से श्रोत्र इन्द्रिय व्यतिरेकेण भिन्नं विविक्तं शब्दस्वरूपं शृणोतीति के प्रदेशों में विशिष्ट परिणमन हो जाने के कारण संभिन्नश्रोत, तस्य भावः संभिन्नश्रोतृता। द्वादशा- बारह योजन लम्बे और नो योजन चौड़े चक्रवर्ती के याम-नवयोजनविस्तारचक्रवर्तिस्कन्धावारोत्पन्ननर- स्कन्धावार (छावनी) में एक साथ उत्पन्न हुए करभाद्यक्षरानक्षरात्मकशब्दसन्दोहस्यान्योन्यं विभ- हाथी, घोड़ा, गधा, ऊँट और मनुष्य प्रादि के अक्षर क्तस्य युगपत्प्रतिभासो यस्यां सा संभिन्नश्रोतृता। अनक्षरात्मक अनेक प्रकार के शब्दों को एक साथ (श्रुतभ. ३, पृ. १७०) । ७. सर्वेन्द्रियाणां विषयान् ग्रहण करने का जो सामर्थ्य प्रकट होता है उसे गृह्णात्येकमपीन्द्रियम् । यत्प्रभावेन सम्भिन्नश्रोतो- संभिन्नश्रोतृत्व ऋद्धि कहते हैं। लब्धिस्तु सा मता ॥ (योगशा. स्वो. विव. १-८, संभिन्नश्रोतृत्व--- देखो संभिन्नश्रोता। पृ. ३६ उद्.) । ८. यः सर्वैरपि शरीरदेशः शृणोति संभिन्नश्रोतोलब्धि-- देखो संभिन्नश्रोता। स संभिन्नश्रोता:, अथवा श्रोतांसि इन्द्रियाणि सम्भि- संमूर्छन-देखो सभ्मूर्छन । १. सम्म मात्रं न्नानि एकैकशः सर्व विषयैर्यस्य स सम्भिन्नश्रोताः, समूर्छनम्, उत्पत्तिस्थानस्थतदुचितपुद्गलोपमर्दैन एकतरेणापीन्द्रि येण समस्तापरेन्द्रियगम्यान् विषयान् शरीरबद्धसंध्यात्म-परिणामरूपकृभ्यादिसंमूर्छनवत् । योऽवगच्छति स संभिन्नश्रोता इत्यर्थः, अथवा श्रो. (त. भा. हरि वृ. २-३२)। २. सम्मूर्छातांसि इन्द्रियाणि, सम्भिन्नानि परस्परत एकरूपता. मात्रं सम्मूर्छनम्, यस्मिन् स्थाने स उत्पत्स्यते मापन्नानि यस्य स तथा, श्रोत्रं चक्षुः कार्यकारित्वात् जन्तुस्तत्रत्यपुद्गलानुपसृज्य शरीरीकुर्वन् सम्मूचक्षुरूपतामापन्नम्, चक्षुरपि श्रोत्रकार्यकारित्वात् छनम् जन्म लभते, तदेव तादृक् सम्मूर्छनं जन्मोतद्रूपतामापन्नमित्येवं सम्भिन्नानि यस्य परस्पर- च्यते । (त. भा. सिद्ध.व.२-३२) । मिन्द्रियाणि स सम्भिन्नश्रोता इति भावः, अथवा २ जीव जिस स्थान में उत्पन्न होने वाला है वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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