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सर्व स्पर्श ]
सर्वस्पर्श - १. जं दव्वं सव्वं सव्वेण फुसदि, जहा परमाणुदव्यमिदि, सो सब्बो सव्वफासो णाम । ( षट्खं. ५, ३, २२; धव. पु. १३, पृ. २१) । २. सव्वावयवेहि फासो सव्वफासो णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ७ ) ; जहा परमाणुदव्वमण्णेण परमाणुणा पुसज्जमार्ण सव्वं सव्वष्पणा पुसिज्जदि तहा श्रण्णो वि जो एवंविहो फासो सो सव्वफासो त्ति दट्ठव्वो । (घव. पु. १३, पृ. २१) ।
१ जो द्रव्य परमाणु के समान सबको सर्वात्मकरूप से स्पर्श करता है उस सबको सर्वस्पर्श कहा जाता है ।
१११३, जैन-लक्षणावली
टी. ६२) ।
विशेष - सामान्यस्वरूप व द्रव्य पर्यायरूप व्यक्ति के विधि - निषेधरूप सब धर्मों को सर्वान्त कहा गया है। सर्वार्थसिद्ध - १. सर्वेष्वभ्युदयार्थेषु सिद्धाः सर्वार्थसिद्धा:, सर्वार्थैश्च सिद्धाः सर्वे चैव चैषामभ्युदयार्थाः सिद्धा इति सर्वार्थसिद्धा: । ( त. भा. ४-२० ) । २. प्राभ्युदयिकसुखप्रकर्षवतित्वात् सर्वप्रयोजनेष्वव्याहतशक्तयः सर्वार्थसिद्धाः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-२१) ।
१ जो सभी श्रभ्युदय सम्बन्धी प्रयोजनों में सिद्ध हैं वे सर्वार्थसिद्ध कहलाते हैं । श्रथवा जो सभी इन्द्रियविषयों से प्रसिद्ध हैं, अथवा जिनके लौकिक सुख के सब प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं उन्हें सर्वार्थसिद्ध कहा जाता है ।
सर्वानशनतप - १. परित्यागोत्तरकालो जीवितस्य यः सर्वकालः, तस्मिन्ननशनं प्रशनत्यागः सर्वानशनम् । ( भ. प्रा. विजयो २०६ ) । २. सव्वाणसणं सर्वस्मिन् संन्यासोत्तरकालेऽनशन मशनत्यागः । (भ. श्री. मूला. २०) ।
१ प्रहारपरित्याग के बाद का जो जीवित का सब काल है उसमें भोजन के परित्याग को सर्वानशन कहा जाता है ।
सर्वानन्त - जं तं सव्वाणंतं तं घणागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादी सव्वाणंतं । ( घव. पु. ३, पू. १६ ) ।
प्रकाश को घनाकार से सब श्रोर से देखने पर उसका अन्त नहीं देखा जाता, इसीलिए श्रन्त का प्रभाव होने से उसे सर्वानन्त कहा जाता है । सर्वानुकम्पा - १. सद्दृष्टयो वापि कुदृष्टो वा स्वभावतो मार्दवसंप्रयुक्ताः । यां कुर्वते सर्वशरीर [रि] वर्गे सर्वानुकम्पेत्यभिधीयते सा ॥ (भ. श्री. विजयो. १८३४) । २. सद्दृष्टिभिः कुदृष्टिभिर्वा क्रियमाणा क्लिश्यमान सर्वप्राणिषु अनुकम्पा सर्वानुकम्पेत्युच्यते, या प्रयुक्तोऽन्यदुःखं स्वात्मस्थमिव मन्यमानस्तत्स्वास्थ्याय प्रत्युपकारनिरपेक्षं प्रयतते सदुपदेशं च ददाति । (भ. श्री. मूला. १८३४ ) ।
१ चाहे सम्यग्दृष्टि हों श्रौर चाहे मिथ्यादृष्टि हों वे मार्दवगुण से प्रेरित होकर स्वभावतः सब प्राणियों के समूह में जिस दया को किया करते हैं उसे सर्वानुकम्पा कहा जाता है । सर्वान्त - सर्वान्ताः पुनरशेषधर्मा विशेष - सामान्या त्मक द्रव्य - पर्याय व्यक्तिविधि व्यवच्छेदाः । ( युक्त्यनु.
ल. १४०
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[सर्वा संख्यात
सर्वावधि - सर्व विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स बोधस्सर्वावधिः | X X X अथवा सरति गच्छति प्राकुञ्चन विसर्पणादीनि इति पुद्गलद्रव्यं सर्वम्, तमोही जिस्से सा सब्वोही । ( धव. पु. ६, पृ. ४७, ४८) ।
जिसके विषय की अवधि समस्त विश्व है, श्रथवा जिसकी अवधि पुद्गल (रूपी द्रव्य ) है उसे सर्वावधि कहते हैं ।
सर्वावधिजिन - सर्वावघयश्च ते जिनाश्च सर्वाजिना: । ( धव. पु. ६, पृ. ५१ ) । सर्वावधि स्वरूप जिनों को सर्वावधिजिन कहते हैं । सर्वावधिमरण - सर्वावधिमरणं नाम यदायुर्यथाभूतमुदेति सांप्रतं प्रकृति- स्थित्यनुभव- प्रदेशस्तथानुभूतमेवायुः प्रकृत्यादिविशिष्टं पुनर्बध्नाति उदेष्यति च यदि तत्सर्वावधिमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५; भावप्रा. टी. ३२ ) ।
जो प्रायु वर्तमान में प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश की अपेक्षा जिस रूप में उदय को प्राप्त है उसी रूप में यदि उसे प्रकृति- स्थिति आदि से विशिष्ट बांधता है व भविष्य में उदय को भी प्राप्त होती है तो इसे सर्वावधिमरण कहा जाता है । सर्वासंख्यात - जं तं सव्वासंखेज्जयं तं घणलोगो । कुदो ? घणागारेण लोगं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो । (धव. पु. ३, पृ. १२५ ) ।
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