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सविपाकनिर्जरा ]
तम् । त्रियोगयोगिनः साधोः शुक्लमाद्यं सुनिर्मलम् ॥ ( भावसं वाम ७०१ ) ।
१ प्रथम शुक्लध्यान में चूंकि पृथक्ता के साथ वितर्क और वोचार ये दोनों भी रहते हैं, इसीलिए उसे सवितर्क - विचार - सपृथक्त्व कहा जाता है । सविपाक निर्जरा - १. अनेहसा या दुरितस्य निर्जरा, साधारणा साऽपरकर्मकारिणी । ( श्रमित. श्रा. ३-६५ ) । २. सयमेव कम्मगलणं इच्छा रहियाण होइ सत्ताणं । सविपक्कणिज्जर। सा XX X ॥ ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. १५७ ) । ३. चतुर्गतिभव - महासमुद्रे एकेन्द्रियादिजीवविशेषः श्रवघूर्णिते नानाजातिभेद संभृते दीर्घकालं पर्यटतो जीवस्य शुभाशुभस्य क्रमपरिपाककालप्राप्तस्य कर्मोदयावलि - प्रवाहानुप्रविष्टस्य प्रारब्धफलस्य कर्मणो या निवृत्तिः सा सविपाकनिर्जरा कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ८, २३) । ४. तत्र सविपाका स्वकालप्राप्ता स्वोदयकालेन निर्जरणं प्राप्ता, समयप्रबद्धेन बद्धं कर्म स्वाबाघाकालं स्थित्वा स्वोदयकालेन निषेकरूपेण गलति पक्वाम्रफलवत् । ( कार्तिके. टी. १०४) । ५. यथाकालं समागत्य दत्त्वा कर्म रसं पचेत् । निर्जरा सर्वजीवानां स्यात् सविपाकसंज्ञकः [का] । ( जम्बू. च. १३-१३९) ।
१ समय के अनुसार जो कर्म की निर्जरा होती है वह सभी जीवों के साधारण है व उसे सविपाकनिर्जरा कहा जाता है । वह नवीन कर्मबन्ध की कारण है । २ इच्छा से रहित जीवों के जो स्वयं कर्मों का गलन होता है उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं ।
सवीचार - देखो सविचार । १. प्रत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो ह वीचारो । तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥ ( भ. आ. १८८२) । २. प्रर्थादर्थान्तरे शब्दाच्छब्दान्तरे च संक्रमः । योगाद् योगान्तरे यत्र सवीचारं तदुच्यते । ( भावसं. वाम ७०४ ) ।
१ अर्थ ( द्रव्य व पर्याय), व्यञ्जन (शब्द) श्रीर योग इनका जो संक्रम (परिवर्तन) होता है उसका नाम वीचार है । इस वीचार का सद्भाव होने से प्रथम शुक्लध्यान को सवीचार कहा गया है । २ जिस ध्यान में एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक शब्द से दूसरे शब्द में तथा एक योग से दूसरे योग
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१११६, जैन- लक्षणावली
[ सहजमित्र
में संक्रमण हुधा करता है उसे सवीचार कहा जाता है ।
सवीचार - कायक्लेश - १. सवीचारं ससंक्रम पूर्वावस्थिताद् देशाद् गत्वाऽपि स्थापितस्थानम् । (भ. प्रा. विजयो. २२३ ) । २. सविचारं ससंक्रम पूर्वस्थानात् स्थानान्तरे गत्वा प्रहर दिवसादिपरिच्छेदेनावस्थानम् । (भ. प्रा. मूला. २२३) । २ पूर्व स्थान से जाकर पहर अथवा दिन श्रादि को मर्यादा से अन्य स्थान में रहना, इसे सवीचार कायक्लेश कहते हैं ।
सव्याघातपादपोपगमन - १. सतोऽप्यायुषो यदोपत्रान्तिः क्रियते समुपजातव्याधिनोत्पन्न महा वेदनेन तत् सव्याघातम् । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६-१६) । २. तत्र सतोऽप्यायुषः समुपजातव्याधिविधुरेणोत्पन्नमहावेदनेन वा देहिना यदुत्क्रान्तिः क्रियते तत् सव्याघातम् । (योगशा. स्वो विव. ४-८६ ) । १ विद्यमान भी आयु का जब उपक्रमण किया जाता है तब उत्पन्न हुई व्याधि के साथ जो मरण होता है उसे सव्याघात पादपोपगमन मरण कहते हैं । सव्वकुले - सव्वकुले णामं जेण सव्वतो सव्वसंभवाभावा णो तच्च सव्वतो सव्वहा सव्वकालं व णत्थि - त्ति सव्वच्छेदं वदति, से तं सव्वकुले । (ऋषिभा.
२०, पृ. १५) ।
सबसे सबकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, इसलिए सर्वतः, सर्वथा व सब काल तत्त्व नहीं है, इस प्रकार सब का उच्छेद जरना, इसे सव्वकुल कहा जाता है । सशल्यमरण - माया निदान - मिथ्यात्वलक्षणशल्यसमेतस्य मरणं सशल्यं मरणम् । (भ. श्री. मूला. २५) ।
माया, निदान और मिथ्यात्व स्वरूप शल्य के साथ जो मरण होता है उसे सशल्य मरण कहते हैं । सहज मित्र - १. तत्सहजं मित्रं यत्पूर्वपुरुषपरम्परायातः सम्बन्धः । (नीतिवा. २३-३, पृ. २१६) । २. तथा च भागुरि: – सम्बन्धः पूर्वजानां हि यस्तेन योऽत्र समायो । मित्रत्वं कथितं तच्च सहजं नित्यमेव हि ॥ ( नीतिवा. टी. २३-३) ।
१ जिसके साथ पूर्व पुरुषों का -पिता-पितामह श्रादि का - संबन्ध परम्परा से चला आया है वह सहज मित्र माना जाता है ।
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