Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 447
________________ सर्वोदयतीर्थ ] घनलोक को सर्वा संख्यात माना जाता है, कारण यह कि उस धनलोक को घनाकार से देखने पर प्रदेशगणना की अपेक्षा संख्या संभव नहीं है । सर्वोदयतीर्थ - सर्वान्तवत्तद्गुण- मुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव । ( युक्त्यनु. ६२ ) । जो तीर्थ - परमागम - सबके प्रभ्युदय का कारण हो उसे सर्वोदय तीर्थ कहा जाता । ऐसा वह वीतराग सर्बज्ञ प्ररूपित तीर्थ गौण श्रौर मुख्य अथवा विवक्षित प्रविवक्षित को अपेक्षा सब श्रन्तों - विधि-निषेध रूप धर्मों से सहित होता है, वही उन धर्मों के परस्पर निरपेक्ष होने पर सब धर्मों से शून्य रहता है, वह एकान्तवाद स्वरूप दुर्नयों या मिथ्यादर्शनादि का विघातक होने से समस्त आपत्तियों को दूर करने वाला तथा प्रति वादियों के द्वारा अखण्डनीय होने से निरन्त भी होता है । सर्वोषध - देखो सर्वोषधि । सर्वौषधि - १. जीए पस्स जलाणिल-रोम णहादीणि बाहिहरणाणि । दुक्करतवजुत्ताणं रिद्धी सव्वोसहीणामा ॥ ( ति प ४ - १०७३ ) । २. अङ्ग-प्रत्यङ्गनख - दन्त-केशादिरवयवः, तत्संस्पर्शी वाय्वादिस्सर्वं औषधिप्राप्तो येषां ते सर्वोषधिप्राप्ताः । (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पृ. ६६ ) । ३. रस- रुहिरमांस-मेट्ठि मज्ज-सुक्क - पुप्फस-खरीस कालेज्ज-मुत्तपित्तंतुच्चारादयो सब्वे प्रोसहितं पत्ता जेसि ते सव्वसहपत्ता | ( धव. पु. ६, पृ. ६७) । ४. सर्वविट्त्रादिकमोषधं यस्य स सर्वोषधः । किमुक्तं भवति ? यस्य मूत्रं विट् श्लेष्मा शरीमलो वा रोगोपशमसमर्थो भवति स च सर्वोषधः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २७३ ) । ५. सर्व एव विण्मूत्र-केशनखादयोऽवयवाः सुरभयो व्याध्यपनयनसमर्थत्वादीषधयो यस्यासौ सर्वोषधिः, अथवा सर्वा श्रामषषध्यादिका श्रौषधयो यस्य एकस्यापि साधोः स तथा । ( प्राव. नि. मलय. वृ. ६६, पू. ७८ ) । १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से दुष्कर तपयुक्त मुनियों का स्पर्श जल, वायु, रोम और नख प्रादि रोग के विनाशक होते हैं उसका नाम सर्वोषधि ऋद्धि है । २ जिनके अंग-प्रत्यंग, नख-दांत और बाल यादि श्रवयवों को स्पर्श करने वाली वायु श्रादि सब १११४, जैन-लक्षणावली श्रौषधि को प्राप्त धारक होते हैं । Jain Education International [ सल्लेखना जाते हैं वे सर्वोषधि ऋद्धि के सर्वोषधिप्राप्त - देखो सर्वोषधि । सललितगेय - यत् स्वरघोलनाप्रकारेण ललतीव तत् सह ललितेन ललनेन वर्तत इति सललितम्, यदि वा यत् श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सलिलतम् । रायप. मलय. वृ. ३२ पृ. १६२-६३ ) । जो गेय स्वरघोलना के प्रकार से विलसितसा प्रतीत होता है वह ललित सहित होने से सललित गेय कहलाता है, अथवा जो श्रोत्र इन्द्रिय के शब्दस्पर्श को अतिशय सूक्ष्म उत्पन्न कराता है उसे सललित गेय जानना चाहिए। सल्लेखना - देखो संलेखना । १. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ ( रत्नक. ५- १ ) 1 २. सम्यक्काय- कषायलेखना सल्लेखना | कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना । ( स. सि. ७ - २२ ) । ३. बाह्याभ्यन्तरनैः संग्याद् गृहीत्वा तु महाव्रतम् । मरणान्ते तनुत्यागः सल्लेखः स प्रकीर्त्यते । ( वरांगच. १५-१२५) । ४. सम्यक् काय- कषाय लेखना सल्लेखना । XXX कायस्य बाह्यस्य अभ्यन्तराणां चकषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण ' सम्यक् लेखना सल्लेखना । (त. वा. ७, २२, ३) । ५. सम्यक्कायकषायाणां बहिरन्तर्हि लेखना । सल्लेखनापि कर्तव्या कारणे मारणान्तिकी | रागादीनामनुत्पन्नावगमोदितवर्त्मना । श्रशक्यपरिहारे हि सान्ते सल्लेखना मता । (ह. पु. ५८, १६०-६१ ) । ६. सम्यक्कायकषायलेखना, बाह्यस्य कायस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां यथाविधि मरणविभक्त्याराधनोदितक्रमेण तनूकरणमिति यावत् । ( त. इलो. ७ - २२ ) । ७. बाह्यस्य कायस्याभ्यन्तराणां कषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना । उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि निःप्रतिक्रियायां घर्मार्थं तनुत्यजन सल्लेखना । (चा. सा. पू. २३) । ८. चइऊण सव्वसंगे गहिऊणं तह महव्वए पंच । चरिमंते सण्णासं जं धिप्पइ सा चउत्थिया सिक्खा || ( धम्मर. १५६ ) । ६. सल्लेखना कायस्य कषायाणां च सम्यक्कृशीकरणम् । ( झन. घ. स्वो. टी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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