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सल्लेखना]
१११५, जैन-लक्षणावली [सवितर्क-सवीचार-सपृथक्त्व. ७-९८)। १०. सल्लेखना सम्यक लाभाद्यनपेक्ष- सविचार-विचारो नाम प्रत्थ-वंजण-जोगाण त्वेन, लेखना बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा काय- संकमण, सह विचारेण सविचारं, अत्थ-वंजण-जोगाणं कषायाणां कृशीकरणम् । (सा. घ. स्वो.टी.१-१२); जत्थ संकमणं तं सविचारं भण्णइ । (दशवै. च. पृ. सल्लेखनां बाह्याभ्यन्तरतपोभिः सम्यक्काय-कषाय- ३५)। कृशीकरणमाचारम xxx। (सा. ध. स्वो. टी. अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) और योग का जो संक्रमण ७-५७)। ११. सल्लेहणा सम्यक् कृशीकरणं (परिवर्तन) होता है उसका नाम विचार है, इस अर्थात् काय-कषायाणाम् । (भ. प्रा. मूला. ६८)। विचार से सहित जो शुक्लध्यान होता है उसे १२. दुभिक्षे चोपसर्गे वा रोगे निःप्रतिकारके। सविचार कहते हैं। अर्थात जिस शक्लध्यान में तनोविमोचनं धर्मायाऽऽहुः सल्लेखनामिमाम् ॥ अर्थ, व्यञ्जन और योग का परिबर्तन हुप्रा करता (धर्मसं. श्रा. १०-२१) । १३. सत् सम्यक् लेखना है उसे सविचार शुक्लध्यान जानना चाहिए । कायस्य कषायाणां च कृशीकरणं तनकरणं सल्ले- सविज्ञानदाता-द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं भावं खना। (त. वृत्ति श्रत. ७-२२)। १४. सोऽस्ति सम्यग विचिन्त्य यः । साधुभ्यो ददते दानं सविज्ञानसल्लेखनाकालो जीर्ण वयसि चाथवा । देवाद् घोरो- मिमं विदुः ॥ (अमित. श्रा. ६-७)। पसर्गेऽपि रोगेऽसाध्यतरेऽपि च ॥ क्रमेणाराधना- जो बुद्धिमान् दाता द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का शास्त्रप्रोक्तेन विधिना व्रती। वपुश्च कषायाणां जयं भले प्रकार से विचार करके साधुत्रों के लिए दान कृत्वा तनुं त्यजेत् ॥ (लाटोसं. ६, २३४-३५)। देता है उसे सविज्ञान दाता कहते हैं । दाता के १ जिसका कुछ प्रतीकार नहीं किया जा सकता है श्रद्धादि सात गुणों में यह चौथा है। ऐसे उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा अथवा रोग के उप- सवितर्क-अवीचार-एकत्वध्यान--एकत्वेन विस्थित होने पर धर्म के लिए शरीर को छोड़ना, तर्कस्य स्याद् यत्राविचरिष्णुता। सवितर्कमवीचारइसे सल्लेखना कहते हैं। २ बाह्य में शरीर को मेकत्वादिपदाभिधम् ।। (म. पु. २१-१७१) । और अभ्यन्तर में कषायों को जो उनके कारणों जिस शक्लध्यान में एकत्व के साथ वितर्क तो रहता को कम करते हुए सम्यक् प्रकार से कृश किया है, पर वीचार नहीं रहता है; उस दूसरे शुक्लध्यान जाता है, इसका नाम सल्लेखना है।
को नाम से सवितर्क-प्रवीचार-एकत्व कहा जाता है। सविकल्प-तद्भावः परिणामः' स्यात् सविकल्प- सवितर्कध्यान-१. जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा स्य लक्षणम् ॥ (न्यायवि. १२१)।
पुवगदप्रत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं धर्माधर्मादि द्रव्य जिस स्वरूप से हैं उनके उस स्वरूप सवितक्कं तेण तं ज्झाणं ।। (भ. प्रा. १९८१ का नाम परिणाम है। यह परिणाम सविकल्प का धव. पु. १३, पृ. ७८ उद.)। २. निजशुद्धात्मलक्षण है।
निष्ठत्वाद् भावश्रुतावलम्बनात् । चिन्तनं क्रियते सविकल्पचारित्र-तत्रैवात्मनि रागादिविकल्प- यत्र सवितर्कस्तदुच्यते ॥ (भावसं. वाम. ७१६) । निवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रम् । (प्रव. सा. जय. वृ. १ श्रुतज्ञान और उसके विषयभूत अर्थ को भी ३-३८)।
वितर्क कहा जाता है। चूंकि पूर्वगत श्रुत-चौदह ज्ञानस्वरूप शुद्ध प्रात्मा में जो राग-द्वेषादिरूप पूर्वो के अर्थ में जो कुशल है वही ध्याता इस विकल्पों की निवृत्ति होती है, इसे सविकल्प चारित्र शुक्लध्यान को ध्याता है, इसीलिए उस ध्यान को कहते हैं।
सवितर्क कहा जाता है। सविकल्पज्ञान-विशदाखण्डकज्ञानाकारे स्वशुद्धा- सवितर्क-सवीचार-सपृथक्त्वध्यान-१. पृथक्त्वेन स्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकल्पज्ञानम् । (प्रव. सा. वितर्कस्य वीचारो यत्र विद्यते । सवितर्क सवीचारं जय. वृ. ३-३८)।
सपृथक्त्वं तदिष्यते ॥ (ज्ञाना. ४२-१३, पृ. ४३३)। निर्मल प्रखण्ड एक ज्ञानमय शुद्ध प्रात्मा के विषय २. पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र तद् विदुः । में जो परिच्छित्ति होती है उसे सविकल्प ज्ञान सवितर्क सवीचारं पृथक्त्वादिपदाह्वयम् ॥ (म. पु. कहते हैं।
२१-१७०)। ३. सवितर्क सवीचारं सपृथक्त्वमुदाहृ
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