Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 443
________________ सराग] १११०, जैन-लक्षणावलो [सपिरास्रवी के लिए जलाशयों से जो सारणी के द्वारा जल को सम्यग्दर्शनम् । (भ. प्रा. विजयो. ५१)। ४. प्रशमखींचा जाता है उसका नाम सरःशोष है। संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं सराग - १. संसारकारणनित्ति प्रत्यागोऽक्षीणा- भण्यते । (परमा. व. २-१७); व्यवहारेण तु शयः सराग इत्युच्यते। (स. सि. ६-१२)। वीतराग-सर्वज्ञप्रणीतसव्व्यादि श्रद्धानरूपं सराग२. संपरायनिवारणप्रवणोऽक्षीणाशयः सरागः । सम्यक्त्वं चेति भावार्थः । (परमा, वृ२-१४३)। पूर्वोपात्तकर्मोदयवशादक्षीणाशय: सन् संपरायनिवा- १ जो तत्त्वार्थश्रद्धान प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और रणं प्रत्यागूर्ण मनाः साग इत्युच्यते । (त. वा. ६, प्रास्तिक्य गुणों से प्रगट होता है अथवा इन चिह्नों १२, ५)। ३. सांपरायनिवारण-प्रवणो अक्षीणा- से जाना जाता है उसे सरागसम्यक्त्व कहते हैं। शय: सरागः । (त. श्लो. ६-१२)। ४. रजनाद् सरागसंयम-देखो सरागचर्या सरागचारित्र । राग: संज्वलनलोभादिकषायाः, तत्सहवर्ती सरागः । १. प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तविरतिः संयमः, सरागस्य (त. भा. सिद्ध. व. ६-१३)। संयमः सरागो वा संयमः सरागसंयमः। (स. सि. १ जो संसार के कारणों के छोड़ने में उद्यत है, पर ६-१२) । २. प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः जिसका रागादिरूप अभिप्राय नष्ट नहीं हुआ है उसे संयमः । प्राणिष्वेकेन्द्रियादिषु चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु च सराग कहा जाता है। अशुभप्रवृत्तेविरतिः संयम इति निश्चीयते । सरागसरागचर्या -देखो सरागचारित्र । स्य संयमः सरागो वा संघमः सरागसंयमः । (त. सरागचारित्र-१. मूलुत्तरसमणगुणा धारण कहणं वा. ६, १२, ६)। ३. सरागसंयमः मूल-गुणोत्तरच पंच आयारो । सोही तहव सुणिट्ठा सरायचरिया गुणसम्पद्लोभायुदयवान् प्राणवधाद्युपरमः । (त. हवइ एवं ।। (द्रव्यस्व. प्र. नयच. ३३४)। २. आदि- भा. हरि. व. ६-१३) । ४. संयमनं सयम: प्राणिमकसायबारसखवोवसम संजलण-णोकसायाणं । उद- वधाधुपरतिः, सरागस्य संयम: सरागसंयमः, मूलयेण [य] जं चरण सरागवारित्त तं जाण ।। मज्झि- गुणोत्तरगुणसम्पल्लोभाधु भयभाज इति यावत् । (त. मकसायप्रडउवसमे हु संजलण-णोकसायाणं । खइ. भा. सिद्ध. वृ. ६-१३)। ५. संसारकारणनिषेधं उवसमदो होदि ह तं चेव सरागचारित्तं ॥ (भाव- प्रत्युद्यतः अक्षीणाशयश्च सराग इत्युच्यते, प्राणीत्रि. ११-१२)। न्द्रियेषु अशुभप्रवृत्तेविरमणं संयमः, पूर्वोक्तस्य सराग१ मुनियों के मूलगुणों व उत्तरगणों का धारण, स्य संयमः सरागसंयमः, महाव्रतमित्यर्थः । अथवा व्याख्यान, पांच प्रकार के प्राचार का परिपालन, सरागः संयमो यस्य स सरागसंयमः। (त. वृत्ति भावशुद्धि व कायशुद्धि प्रादि पाठ शुद्धियों का निर्वाह श्रुत. ६-२०)। और अतिशय निष्ठा; यह सब सरागचर्या (सराग- १ प्राणियों व इन्द्रियों के विषय में जो अशुभ प्रवृत्ति चारित्र) स्वरूप है । २ प्रादि की बारह कषायों के होती है उससे विरत होने का नाम संयम है, सराग क्षयोपशम तथा संज्वलन और नोकषायों के उदय के संयम को, अथवा सराग-राग सहित-संयम को से जो चारित्र होता है उसे सरागचारित्र जानना सरागसंयम कहा जाता है। ३ मूल और उत्तर गुणचाहिए । अथवा मध्य की पाठ कषायों के उपशम रूप सम्पत्ति के साथ लोभ आदि के उदय युक्त जो तथा संज्वलन और नोकषायों के क्षयोपश से जो प्राणवध प्रादि से निवृत्ति होती है उसे सरागसंयम चारित्र होता है उसे सरागचारित्र जानना चाहिए। कहते हैं। सरागसम्यक्त्व-१. प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्या- सर्पमुद्रा--दक्षिणहस्तं संहतालिमुन्नमय्य सर्पभिव्यक्तलक्षणं प्रथमम् । (स. सि. १-२: त. वा. फणावत् किञ्चिदाकुञ्चयेदिति सर्पमुद्रा। (निर्वाणक. १, २, ३०)। २. सरागे वीतरागे च तस्य संभ- पृ. ३२)। वतोऽञ्जसा । प्रशमादेरभिव्यक्तिः शुद्धिमात्राच्च परस्पर मिली हुई अंगुलियों से युक्त दाहिने हाथ चेतसः ॥ xxx प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्येभ्यः को ऊपर उठाकर सांप के फण के प्राकार में संकुसरागेषु सद्दर्शनस्य (अभिव्यक्तिः) । (त. श्लो. १, चित करने पर सर्पमुद्रा होती है। २, १२) । ३. प्रशस्तरागसहितानां श्रद्धानं सराग- सपिरास्रवी-१. रिसिपाणितलणिखित्तं रुक्खा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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