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सयोगकेवली] ११०६, जैन-लक्षणावली
[सरःशोष प्रक्षीण रहने पर जिस प्रकार उसके उपयोग से कुछ पाठ अन्तमुहूर्तों से कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। ही अंश में कलषित परिणाम होता है उसी प्रकार सयोगिजिनगणस्थान- सम्प्राप्तकेवलज्ञान-दर्शनो सम्यमिथ्यात्व के उदय से जिस जीव का तत्त्वार्थ
जीवो यत्र भवति तत्सयोगिजिनसंज्ञं त्रयोदशं गुणके श्रद्धान व अश्रद्धानरूप मिश्रित परिणाम होता है।
स्थानं भवति । (त. वत्ति श्रुत.8-१)। उसे सम्पङभियादृष्टि कहा जाता है।
केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करके जीव सयोगकेवली--देखो सयोगिकेवली ।
जिस गुणस्थान में रहता है उस तेरहवें गुणस्थान सयोगिकेवली-- १. केवलणाण-दिवायरकिरण- को सयोगिकेवलिजिनगुणस्थान कहते हैं । कलावप्पणासि अण्णाणो। णवकेवललधुग्गमपाविय
सयोगिभवस्थकेवलज्ञान--केवलज्ञानोत्पत्तेरारभ्य परमप्पववएसो॥ असहायणाण-दसणसहियो वि
यावदद्यापि शैलेश्यवस्थां न प्रतिपद्यते तावत् सयोगिहु केवली हु जोएण । जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणा
भवस्थकेवलज्ञानम् । (प्राव. नि. मलय. व. ७८, पृ. इ-णिहणारिसे वुत्तो।। (प्रा. पंचसं. १-२७ व २६%B
८३)। धव. पु. १, पृ. १६१-६२ उद्.; गो. जी. ६३,
केवलज्ञान की उत्पत्ति से लेकर जीव जब तक शैलेशी ६४) । २. मनोवाक्कायप्रवत्तिर्योग:। योगेन सह
अवस्था को प्राप्त नहीं होता तब तक उसके केवलवर्तन्त इति सयोगः । सयोगाश्च ते केवलिनश्च
ज्ञान को सयोगिभवस्थकेवलज्ञान कहा जाता है। सयोगकेवलिन: । (धद. पु. १, पृ. १६१) । ३. उत्पन्न केवलज्ञानो घातिकर्मोदयक्षयात् । सयोग
सरप्रमाण-तत्थ णं जे से बायरवोंदि कलेवरे तो श्चायोगश्च स्यातां केवलिनावुभौ ॥ (त. सा. २,
णं वाससए २ गए एगमेगं गंगावालुयं अवहाय २६) । ४. घातिकर्मक्षये लब्धा नव-केवललब्धयः ।
जावतिएणं कालेणं से कोठे खोणे णीरए णिल्लेवे येनासौ विश्वतत्त्वज्ञः सयोगः केवली विभुः । (पंच
णिट्रिए भवति, से तं सरे सरप्पमाणे। (भगवती १५, सं. अमित. १-४६) । ५. मोहक्षपणानन्तरमन्तk
खं. ३, पृ. ३८१) ।
बावर बोंदि कलेवर रूप उद्धार से सौ सौ वर्ष में हूतकालं स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणकत्ववितर्कावीचारद्वितीय शुक्लध्याने स्थित्वा तदन्त्यसमये ज्ञानावरण
एक एक गंगाबालका कण का अपहार करने पर
जितने काल में वह खाली होकर नीरज, निर्लेप दर्शनावरणान्तरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मूल्य मेघपञ्जरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवल
व निष्ठित हो जाय उतने काल को सरप्रमाणकाल ज्ञानकिरणर्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानव
कहते हैं। तिनो जिन-भास्कराः। (ब. द्रव्यसं. टी. १३)। सरस्वती-मातेव या शास्ति हितानि पुंसो, रजः ६. सयोगिकेवली घातिक्षयादुत्पन्न केवलः । (योग- क्षिपन्ती ददती सुखानि । समस्तशास्त्रार्थविचारशा. स्वो. विव. १-१६, पृ. ११२ उद्.)।
दक्षा, सरस्वती सा तनुतां मति मे ॥ (अमित. श्रा. १असहाय (इन्द्रिय व प्रालोक प्रादि की सहायता से रहित) ज्ञान और दर्शन-केवलज्ञान व केवल. जो माता के समान पुरुषों को हित की शिक्षा देती दर्शन--से सहित होकर जिसने समस्त प्रज्ञान को है, कर्ममल को दूर फेंकती है, तथा सूख को देती नष्ट कर दिया है तथा जो नौ केवललब्धियों को है; समस्त शास्त्र के अर्थ के विचार में कुशल ऐसी प्राप्त करके परमात्मा बन चुका है उसे योग से उस जिनवाणी को सरस्वती कहा जाता है। सहित होने के कारण सयोगिकेवली कहा गया है। सरःशोष-१. सर:शोषः सरःसिन्धु-ह्रदादेरम्बु६ धातिया कर्मों के क्षय से जिसके केवलज्ञान उत्पन्न संप्लवः ॥ (योगशा. ३-११४; त्रि.श. पु. च. ६, हो चुका है उसे सयोगिकेवली कहते हैं। ३, ३४८) । २. सरःशोषो घान्यवपनाद्यर्थं जलासयोगिकेवलिकाल---अहि वस्सेहि अहि अंतो- शयेभ्यो जलस्य सारण्या कर्षणम । (सा. घ. स्वो. मुहुत्तेहि य ऊणपुवकोडी सजोगिकेवलिकालो टी. ५-२२)। होदि । (घव. पु. ४, पृ. ३५७)।
१ तालाव, नदी और ह्रद प्रादि से अल के निकासयोगिकेवली का काल (उत्कृष्ट) पाठ वर्ष और लने को सरःशोष कहते हैं। २ धान्य के बोने आदि
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