________________
सम्यक्त्वक्रिया ११०४, जैन-लक्षणावलो
[सम्यक्श्रुत क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । प्रशम-संवेग-निर्वेदानुकम्पा- सम्यक्त्वमोहनीय कहा जाता है। स्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणजीवादिपदार्थविषया श्रद्धा सम्यक्त्वविनय-यत्र निःशंकितत्वादिलक्षणोपेजिन-सिद्ध-गुरूपाध्याय-यति-जनयोग्य-पुष्प-धूप-प्रदीप- तता भवेत् । श्रद्धाने सप्ततत्त्वानां सम्यक्त्वविनय: चामरातपत्र-नमस्करण-वस्त्राभरणानपान-शय्यादा- स हि ।। (त. सा.७-२१) । नाद्यनेकवयावृत्त्याभिव्यङ्ग्या च सम्यक्त्वसद्भाव- जहां सात तत्त्वों का श्रद्धान निःशंकितत्व प्रादि सम्बर्धनपट्वी सद्वेद्यबन्धहेतुर्देवादिजन्मप्रतिलम्भ- गुणों से संयुक्त होता है उसे सम्यक्त्वविनय कहते हैं । कारणम् । (त. भा. सिद्ध. व. ६-६)। सम्यक्त्ववेदनीय -- देखो सम्यक्त्वमोहनीय । ५. सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानम्, तदेव जीवव्यापारत्वात्. जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानात्मकेन सम्यक्त्वरूपेण यद्वेद्यते क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । (स्थानां. अभय. वृ. ६०)। तत्सम्यक्त्ववेदनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३)। ६. चैत्य-गुरुप्रवचनार्चनादिस्वरूपा सम्यग्दर्शनवौद्धनी जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट तत्वों के श्रद्धानस्वरूप अन्यक्रियाभ्यो विशिष्टा सम्यक्त्वक्रिया। (त. वृत्ति सम्यक्त्व के रूप में जिस दर्शनमोहनीय कर्म का श्रुत. ६-५)।
वेदन किया जाता है उसे सम्यक्त्ववेदनीय कहते हैं। ह और प्रवचन (प्रागम) की जो पूजा सम्यक्त्वाराधक-धम्माघम्मागासाणि पोग्गला प्रादि रूप क्रिया सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली है उसे कालदव्व जीवे य । प्राणाए सद्दहन्तो समत्ताराहनो सम्यक्त्वक्रिया कहते हैं।
भणिदो ॥ (भ. प्रा. ३६) । सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिथ्यात्वमेव सामिशुद्धस्व- जो धर्म, अधर्म, प्राकाश, पुदगल, काल और जीव रसं, ईषन्निराकृतफलदानसामर्थ्य सम्यग्मिथ्या- इन द्रव्यों का सर्वज्ञ की प्राज्ञा के अनुसार धद्धान स्वापरनामधयं तदुभयम् (सम्यक्त्वमिथ्यात्वम्)। करता है उसे सम्यक्त्वाराधक कहा गया है। (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)।
सम्यक्त्वाराधना-भावाणं सहहणं कीरइ जं जिसको फलदानशक्ति कुछ अंश में रोक दी गई सुत्तउत्तजुत्तीहिं । आराहणा हु भणिया सम्मत्ते सा है ऐसी मिश्रित अवस्था में वर्तमान दर्शनमोह मुणिदेहि ॥ (भ. प्रा. ४)। कर्मप्रकृति को सम्यक्त्व-मिथ्यात्व कहा जाता है। प्रागमोक्त युक्तियों के द्वारा जो पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्वमोहनीय-देखो सम्यमिथ्यात्व । १. किया जाता है उसे सम्यक्त्वनाराधना कहा तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासी- गया है। न्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वेदय- सम्यक्षद्धान-१. रुचिजिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक्मानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते । (स. सि. श्रद्धानमुच्यते । (योगशा. १-११७) । २. रुचिः ८-९) । २. अत्तागमपदस्थसद्धाए जस्सोदएण सि- श्रुतोक्ततत्त्वेषु सम्यक्श्रद्धानमुच्यते । (त्रि. श. पु. थिलत्तं होदितं सम्मत्तं । (धव. पु. ६, पृ. ३६); च. १, ३, ५८५) । उप्पण्णस्स सम्मत्तस्स सिढिलभावुप्पाययं अथिरत्त- १ जिन भगवान के द्वारा निर्दिष्ट तत्वों के विषय कारणं च कम्मं सम्मत्तं णाम । (धव. पु. १३, पू. में जो रुचि उत्पन्न होती है उसे सम्यक् अर्थात् ३५८)। ३. यस्योदयेनाप्तागम-पदार्थेषु श्रद्धायाः समीचीन श्रद्धान (सम्यक्त्व) कहा जाता है। शैथिल्यं तत् सम्यक्त्वं कोद्रवतन्दुलसदृशम् । (मूला. सम्यक्श्रुत-१. जं इमं अरहंतेहि भगवंतेहि उप्पवृ. १२-१६०)।
ण्णणाण-दसणधरेहिं तेलुक्कनिरिक्खिअमहिन१ शभ परिणाम के द्वारा जिसके मनभाग को पूइएहि तीय-पड़प्पण्णमणागयजाणएहि सव्वण्णहि रोक दिया गया है तथा जो उदासीन रूप से स्थित सव्वदरिसीहि पणीधे दुपालसंगं गणिपिडगंतं । जहा जीव के श्रद्धान को नहीं रोक सकता है ऐसा वही -पायारो XXX इच्चेअं दुवालसंगं गणिपिडगं मिथ्यात्व सम्यक्त्वमोहनीय कहलाता है। इसके चोद्दसपुग्विस्स सम्मसुमं अभिण्णदसपुब्धिस्स सम्मउक्ष्य का अनुभव करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि सुअं तेण परं भिण्णेसु भयणा, से तं सम्मसुधे । कहा जाता है। २ जिसके उदय से प्राप्त, मागम (नन्दी. सू. ४०, पृ. १६१-६२)। २. सम्यग्दृष्टे: और पदार्थों के श्रद्धान में शिथिलता होती है उसे प्रशमादिसम्यक्परिणामोपेतत्वात् स्वरूपेण प्रति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org