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समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति १०६, जैन-लक्षणावली
[सम्पुटकमल्लक उनके व्यवच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक चौथा परम समित्येकीभावे, उत्प्राबल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन शुक्लध्यान होता है।
घातः समुद्घातः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३०)। समुच्छिन्नत्रियानिवृत्ति---देखो समुच्छिन्नक्रिया- १ सम्भूत होकर प्रात्मप्रदेशों के शरीर से बाहिर निवर्ती।
जाने का नाम समुद्घात है। ३ शरीर से बाहिर समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती-देखो समुच्छिन्नक्रि- प्रात्मप्रदेशों के प्रक्षेप को समुद्घात कहते है। यानिवर्ती।
समुद्देश-१.xxx पासंडो ति य हवे समुसमुच्छेद-एकजात्य विरोधिनि क्रमभुवां भावानां देसो। (मूला. ६-७)। २. XXX पासंडीणं संताने पूर्वभावविनाशः समुच्छेदः। (पंचा. का. भवे समुद्देसं । (पिंडनि. २३०) । ३. समुद्देशो अमृत. वृ. १०)।
व्याख्या, अर्थप्रदानमिति भावः। (व्यव. भा. मलय. एक जाति की प्रविरोधी क्रम से होने वाली प्रव- व. पी. १-११५, प. ४०)। ४. ये केचन पाखस्थानों के समुदाय में पूर्व प्रवस्था का जो विनाश उिन ग्रागच्छन्ति भोजनाय तेभ्यः सर्वेभ्यो दास्या. होता है उसे समुच्छेद कहते हैं। इसे दूसरे शब्द से मीत्युद्दिश्य कृतमन्नं स पाखण्डिन इति च भवेत्समुव्यय कहा जाता है।
द्देशः । (मूला. वृ. ६-७)। ५. पाषण्डानुद्दिश्य समुत्पत्तिककषाय -१. समुप्पत्तिकसानो णाम साधितं समुद्देशः । (अन. ध. स्वो. टी. २-७) । कोहो सिया जीवो, सिया णोजीवो, एवमट्ठभंगा। १ पाखण्डियों के उद्देश से जो भोजन तैयार कराया xxx जं पडुच्च कोहो समुप्पज्जदि जीव वा जाता है वह समद्देश नामक प्रौद्देशिक दोष से णोजीवं वा जीवे वा णोजीवे वा मिस्सए वा सो दुषित होता है । ३ सूत्र की व्याख्या करना अथवा समुप्पत्तियकसारण कोहो । (कसायपा. चू. प. अर्थ को प्रदान करना, इसका नाम समुद्देश है। २३) । २. (जीवादो) भिण्णो होदूण जो [कसाए] समुद्देशानुज्ञाचार्य- उद्देष्टगुर्व भावे तदेव श्रुतं समुसमुप्पादेदि सो समुप्पत्तिो कसानो। (जयध. पु. दिशत्यनुजानीते वा यः स समुद्देशानुज्ञाचार्यः । १, पृ. २८६)।
(योगशा. स्वो. विव. ४-६०) । १ एक जीव, एक नोजीव (जीव), बहुत जीव, उपदेष्टा गुरु के प्रभाव में उसी श्रुत का जो उपदेश बहुत नोजीव इत्यादि पाठ के प्राश्रय से जो क्रोध करता है अथवा अनुज्ञा देता है उसे समुद्देशानुज्ञाउत्पन्न होता है उसे समुत्पत्तिककषाय कहते हैं। चार्य कहते हैं। समुत्पाद--(एक जात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावा- सम्पराय-१. समन्तात्पराभव प्रात्मनः सम्परायः। नां सन्ताने) उत्तरभावप्रादुर्भावः समुत्पादः । कर्मभिः समन्तादात्मनः पराभवोऽभिभवः सम्पराय (पंचा. का. अमृत. वृ.१०)।
इत्युच्यते । (त. वा. ६, ४, ४) । २. सम्परत्यस्मिएक जाति की अविरोधी क्रम से होने वाली प्रब. नात्मेति सम्परायः चातुर्गतिकः संसारः । (त. भा. स्थानों के समदाय में अगली अवस्था का जो प्रादुर्भाव सिद्ध. व. ६-५)। ३. सम्पर्य्यन्ते स्वकर्मभिर्धाम्यन्ते होता है उसे समुत्पाद कहते हैं। उत्पाद इसे ही प्राणिनो यस्मिन् स संपरायः संसारः। (सूत्रकृ. सू. कहा जाता है।
शी. व. २, ६, ४६, पृ. १५४) । ४. संपर्येति संसासमुद्घात-१. हन्तेर्गमिक्रियात्वात् सम्भूयात्म. रमनेनेति सम्परायः कषायोदयः। (प्राव. नि. मलय. प्रदेशानां च बहिरुदहननं समदधातः। (त. वा. १, ५.११४, प. १२२) । २०, १२) । २. मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स १ सब घोर से कर्मों के द्वारा जो प्रात्मा का परा. जीवपिंडस्स । णिग्गमणं देहादो होदि समुग्धादणामं भव होता है उसे सम्पराय कहते हैं। २ जिसमें जीव तु ॥ (गो. जी. ६६८)। ३. समदघननं समदधातः परिभ्रमण करता है उसका नाम सम्पराय है। यह शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः। (स्थानां. अभय.व. चतुर्गतिस्वरूप संसार का समानार्थक है।
सम्पूटकमल्लक- XXX जस्स मज्झम्मि। बल्येन, हननं घातः शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशानां नि:- कुवस्सुवरि रुक्खो, मह संपुडमल्लमो नाम ॥ सरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ११-५०)। ५. (बृहत्क. ११०५) ।
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