Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 418
________________ सत्यवादी ] सत्यवादी - जिणवयणमेव भासदि तं पालेढुं असक्मणोवि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सां ॥ ( कार्तिके. ३६८ ) । जो सत्यधर्म के परिपालन में असमर्थ होकर भी जिनागम के अनुसार ही वस्तुस्वरूप का कथन करता है तथा व्यवहार में भी असत्य भाषण नहीं करता है वह सत्यवादी सत्यधर्म का परिपालक होता है । सत्य सत्य -- यद्वस्तु यद्देश-काल- प्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिंस्तथैव संवादि सत्यसत्यं वचो वदेत् ॥ ( सा. घ. ४-४१ ) । न जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकार में नियत रही है उसके विषय में उसी रूप यथार्थ वचन के बोलने को सत्यसत्य कहा जाता है । सत्याणुव्रत - १ XX Xथूले मोसे × × × परिहारो । ( चारित्रप्रा. २३) । २. स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवरमणम् ॥ ( रत्नक. ३ - ९ ) । ३. स्नेह - मोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाशे वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । ( स. सि. ७-२० ) । ४. लोभ-मोह-भय-द्वेषैर्माया मान मदेन वा । कथ्यमनृतं किचित्तत् सत्यव्रतमुच्यते । ( वरांगच. १५-११३) । ५. स्नेह-द्वेष- मोहावेशात् श्रसत्याभिधानवर्जनप्रवणः । स्नेहस्य द्वेषस्य मोहस्य चोद्रेकात् यदसत्याभिधानं ततो निवृत्तादरो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । (त. वा. ७, २०, ३) । ६. थूलमुसावायस्स उ विरई दुच्च च पंचहा होइ । कन्ना-गोभुप्रालिय-नास हरण- कूडस क्खिज्जे ॥ (277. $1. २६० ) । ७. यद्रागद्वेष-मोहादेः परपीडाकरादिह । अनृताद्विरतियंत्र तद् द्वितीयमणुव्रतम् ॥ (ह. पु. ५८, १३६ ) । ८. भोगोपभोगसाधनमात्र सावद्यमक्षमा मोक्तुम् । ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ॥ ( पु. सि. १०१ )। ६. हिसावयणं ण वयदि कक्कसवयणं पि जो ण भासेदि । निठुरवयणं पि तहाण भास दे गुज्झवयणं पि ॥ हिद- मिदवयणं भासदि संतोसकरं तु सव्वजीवाणं । धम्मपयासणवयणं प्रणुव्वई हवदि सो विदिओ || (कार्तिके. ३३३-३४) । १०. क्रोध-लोभ-मद-द्वेष-राग- मोहादिकारणैः । श्रसत्यस्य परित्यागः सत्याणुव्रतमुच्यते ॥ ( सुभा. सं. ७६९ ) । ११. स्नेहस्य मोहस्य द्वेषस्य १०८५, जैन- लक्षणावली [ सत्यासत्य वोद्रेकादसत्याभिधानं ततो निवृत्तादरो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । (चा. सा. पृ. ५) । १२. वा [ रा ]गादीहि सच्च परपीडयरं तु सच्चवयणं पि । वज्जंतस्स णरस्स हु विदियं तु श्रणुव्वयं होइ ॥ ( धर्मर. १४४ ) । १३ मन्मनत्वं कालत्वं मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्यासत्यफलं कन्यालीका द्यसत्यमुत्सृजेत् ॥ कन्या- गो-भूभ्यलीकानि न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्यं च पञ्चेति स्थूलासत्यान्यकीर्तयत् । (योगशा. २, ५३ - ५४ ) । १४. अलियं ण जंपणीय पाणिवहकरं तु सच्चवयणं पि । रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ॥ ( वसु. श्रा. २१० ) । १५ कन्या- गो- क्ष्मालीककूटसाक्ष्य न्यासापलापवत् । स्यात्सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् । (सा. ध. ४- ३६ ) । १६. सभ्यैः पृष्टोऽपि न ब्रूयाद् विवादे ह्यलीकं वचः । भयाद् द्वेषाद् गुरुस्नेहात्स्थूलं सत्यमिदं व्रतम् ॥ ( धर्मसं श्रा. ६, ४९) । १७. लाभ-लोभ- भय द्वेषैर्व्यलीकवचनं पुनः । सर्वदा तन्न वक्तव्यं द्वितीयं तदणुव्रतम् ॥ ( पू. उपासका २४) । १८. Xx X देशतो वेश्मवासिनाम् ॥ ( लाटीसं. ६- १ ) । १ स्थूल मृषा ( श्रसत्य ) वचन का जो त्याग किया जाता है उसे सत्याणुव्रत कहते हैं । २ स्थूल असत्य को स्वयं न बोलना, दूसरों से न बुलवाना तथा विपत्तिजनक सत्य भी न बोलना, यह स्थूल मृषावाद से विरत होना है - सत्याणुव्रत का लक्षण Jain Education International ६ कन्याविषयक, गायविषयक व भूमिविषयक श्रसत्य, न्यास ( अमानत ) का अपहरण तथा न्यायालय आदि में प्रसत्य साक्षी देना, यह पांच प्रकार का स्थूल असत्य है। इस सब के परित्याग को द्वितीय सत्याणुव्रत कहा जाता है । जो सत्याणुव्रती गृहस्थ भोग-उपभोग के साधन मात्र सावध के छोड़ने में असमर्थ हैं वे भी सदा शेष प्रसत्य वचन को छोड़ देते हैं । सत्यासत्य - वाच्यं कालातिक्रमेण दानात् सत्यमसत्यगम् । ( सा. घ. ४-४२ ) । उधार लिए हुए धन आदि को नियत समय पर न देकर कुछ समय के पश्चात् देना, यह असत्य के श्राश्रित सत्य वचन कहलाता है। कारण यह है कि समय पर नहीं दिये जा सकने से यद्यपि श्रसत्य का भागी हुआ है, फिर भी उसको श्रस्वीकार न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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