Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 422
________________ सपक्ष] १०८६, जैन-लक्षणावली [समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म माहारः सन्मिश्राहारः व्रतसापेक्षत्वादतिचारः । १ प्रश्न के वश एक ही वस्तु में जो प्रत्यक्ष और (योगशा. स्वो. विव. ३-६८)।। अनुमान प्रमाण से अविरुद्ध विधि और प्रतिषेष को सचित्त से मिले हुए पाहार को सम्मिश्राहार कहते कल्पना की जाती है उसे सप्तभंगी कहते हैं। हैं। जैसे-अदरख, अनार के बीज, कुलिका और सप्तमी प्रतिमा-सप्तमासान् (पूर्वप्रतिमानुष्ठानखीरे के बीजों से मिश्रित पूरण प्रादि; अथवा तिलों सहितः) सचित्ताहारान् परिहरतीति सप्तमी । से मिश्रित यवधान प्रादि । अथवा सचित्त अंशों से (योगशा. स्वो. विव. ३-१४८)। सहित कच्ची कणिक्क को पीसे जाने से अचित्त पूर्व छह प्रतिमाओं के अनुष्ठान सहित जो सात मानकर ग्रहण करना, यह सन्मिश्राहार है । वह मास पर्यन्त सचित्त भोजनों का परित्याग किया भोगोपभोगपरिमाणवत को दूषित करने वाला करता है वह सातवीं प्रतिमा का परिपालक होता है। उसका एक अतिचार है। सभ्य--१. आदित्यवद्यथावस्थितार्थप्रकाशनप्रतिभा: सपक्ष-साध्यसजातीयधर्मा धर्मी सपक्षः । (न्यायदी. सभ्याः । (नीतिवा. २८-३, पृ. २६५); २. तथा पु. ८३)। च गुरु:-यथादित्योऽपि सर्वार्थान् प्रकटान करोति साध्य का सजातीय धर्म जहां रहता है उसे सपक्ष च । तथा च व्यवहारार्थान् ज्ञेयास्तेऽमी सभासदः॥ कहते हैं। जैसे-पर्वत में धूम हेतु से अग्नि के (नीतिवा. टी. २८-३)। सिद्ध करने में रसोईघर।। १ जो सूर्य के समान अपनी प्रतिभा से यथावस्थित सपृथक्त्व-द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति गुणाद् गुणान्तरं पदार्थों को प्रकाशित किया करते हैं वे राजसभा ब्रजेत् । पर्यायादन्यपर्यायं सपृथक्त्वं भवत्यतः ॥ के सभ्य (सभासद्) माने जाते हैं। (भावसं. वाम. ७०५)। सम (परमाणु)--- गुणाविभागपडिच्छेदेहि ल्हुक्खप्रथम शुक्ल ध्यान में एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य, एक पोग्गलेण सरिसो णिद्धपोग्गलो समो णाम । (धव. गुण से दूसरे गुण और एक पर्याय से दूसरी पर्याय पु. १४, पृ. ३३)। को प्राप्त होता है, इसलिए उसे सपृथक्त्व कहा जो स्निग्ध पुद्गल अपने गुणाविभागप्रतिच्छेदों को जाता है। अपेक्षा रूक्ष पदगल के समान होता है उसे सम सप्तभंगी-१. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन कहते हैं। विधि-प्रतिषेधविकल्पना सप्तभङ्गी । एकस्मिन् वस्तु- समगेय-ताल-वंश-स्वरादिसमनुगतं समम् । (रायनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणेनाविरुद्धा विधि- प. मलय. वृ. पृ. १६२) । प्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गो विज्ञेया। (त. वा. १, ताल, वंश और स्वर प्रावि से संयुक्त गेय समगेय ६,५)। २. द्रव्य-पर्याय-सामान्य-विशेषप्रविभाग- कहलाता है। गद्विधि-प्रतिषेधाभ्यां सप्तभङी प्रवर्तते ॥ समचतरत्रसंस्थान नामकर्म-..१. तत्रोधिोम(न्यायवि. ४५१-५२)। ३. द्रव्य-पर्याय-सामान्य- ध्येषु समप्रविभागेन शरीरावयवसन्निवेशव्यवस्थापन विधान-प्रतिषेधनः ॥ सह-क्रमविवक्षायां सप्तभङ्गी कशलशिल्पिनिर्वतितसमस्थितिचक्रवत् अवस्थानकरं तदात्मनि । (प्रमाणसं. ७३-७४) । ४. एकस्मिन्न- समचतुरस्रसंस्थाननाम । (त. वा. ८, ११, ८)। २. विरोधेन प्रमाण नयवाक्यतः । सदादिकल्पना या च समं च तच्चतुरस्रं चेति समचतुरस्रम्, यतस्तत्र मानो. सप्तभंगीति सा मता ॥ (कातिके. टी. २२४ उद.)। मानप्रमाणमन्यूनाधिकमंगोपांगानि चाधिकृतावय५. एकत्र वस्तुन्येकपर्याय निरूपितविधि-निषेधकल्पना वानि, अध ऊर्ध्व तिर्यक् च तुल्यम्, स्वांगुलाष्टशतोमूल-सप्तधर्मप्रकारकोद्देश्यशाब्दबोधजनकता पर्याप्त्य- च्छायांगोपांगयुक्तं युक्तिनिर्मितलेप्यकवद्वा । (त. धिकरणं वाक्यं सप्तभंगी। (प्रष्टस. यशो. वृ. १४)। भा. हरि. वृ. ८-१२) । ३. समं तुल्यारोहपरिणाम ६. विहि-णिसेहावत्तव्वभंगाणं पत्तेयदुसंजोय-तिसंजोय- संपूर्णांगोपांगावयवं स्वांगुलाष्टशतोच्छायं समचतुजादाणं तिण्णि तिणि एगसंभोयाणं मेलणं सप्तभंगी। रसम । (प्रनयो. हरि. व. पृ. ५७) । ४. जस्स (अंगप. पृ. २८८)। कम्मस्स उदएण जीवाणं समचउरससंठाणं होदिल. १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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