Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 423
________________ समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म] १०६०, जैन-लक्षणावली [समनस्क तस्स कम्मस्स समचउरससंठाणमिदि सण्णा । (धव. ९८% भ. प्रा. मला. ७०)। पु. ६, पृ. ७१); चतुरं शोभनम्, समन्ताच्चतुरं १ शत्रु, व मित्र, मणि व पत्थर तथा सुवर्ण और समचतुरम्, समानमानोन्मानमित्यर्थः। समचतूरं मट्टी में राग और द्वेष का उत्पन्न न होना; इसे च तत् शरीरसंस्थानं च समचतुरशरीरसंस्था- समता कहते हैं। ५ राग-द्वेष के कारणों में मध्यस्थ नम, तस्य संस्थानस्थ निर्वर्तकं यत्कर्म रहना-न राग करना और न द्वेष करना, इसका तस्याप्येषव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात । (धव. नाम समता है। पु. १३, पृ ३६८) । ५. समचतुरस्रं संस्थानं । समदत्ति- १. समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रिया-मन्त्रयथा प्रदेशावयवं परमाणनामन्यूनाधिकता । (मूला. व्रतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भू-हेमाद्यतिसर्जवृ. १२-४६)। ६. तत्र समाः सामुद्रिकशास्त्रोक्त- नम् । समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । प्रमाणलक्षणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयश्चतुर्दिग्विभा- समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता ।। (म. पु. गोपलक्षिता: शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरस्रम, ३८,३८-३६)। २. समदत्तिः स्वसमक्रियाय मित्राय समासान्तोऽत-प्रत्ययः, समचतुरस्रं च तत्संस्थानं च निस्तारकोत्तमाय कन्या-भूमि सूवर्ण-हस्त्यश्व-रथसमचतुरस्रसंस्थानम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६८, रत्नादिदानं स्वसमानाभावे मध्यमपात्रस्यापि दानम् । पृ. ४१२); यदुदयादसुमतां समचतुरस्रसंस्थानमुप- (चा. सा. पृ. २०, कार्तिके. ३६१) । ३.XX जायते तत्समचतुरस्रसंस्थाननाम। (प्रज्ञाप. मलय. X बुभक्षषु गहस्थेषु वात्सल्येन यथामनुग्रहः समावृ. २६३, पृ. ४७३) । नदत्तिः । (सा. घ. स्वो. टी. २-५१) । १ जिस नामकर्म के उदय से कुशल कारीगर के १ जो क्रिया, मन्त्र और व्रत प्रादि से अपने समान द्वारा निमित समान स्थिति वाले चक्र के समान है ऐसे निस्तारकोत्तम- संसार समुद्र से पार उतारने शरीरगत अवयवों की रचना ऊपर, नोचे और वाले गृहस्थों में श्रेष्ठ गृहस्थ के लिए-अथवा मध्यम मध्य में समान विभागों को लिए होती है उसे पात्र के लिए जो श्रद्धापूर्वक समान प्रादर भाव से समचतुरस्त्रसंस्थान कहते हैं। २ जिसके प्राश्रय से पृथिवी व सुवर्ण प्रादि को दिया जाता है, इसे शरीर में सब ओर मान, उन्मान व प्रमाण हीना- समदत्ति कहते हैं। धिक नहीं होता है। अंग और उपांग अधिकृत प्रव- समधी-निर्ममो निरहंकारो निर्माण-मद-मत्सरः । यवों से परिपूर्ण होते हैं। प्राकार नीचे, ऊपर निन्दायां संस्तवे चैव समधी शंसितव्रतः ॥ (उपाव तिरछे में समान होता है, तथा युक्ति से निर्मित । सका. ८६६)। मति के समान शरीर अपने अंगल से पाठ सौ जो ममकार और अहंकार से रहित होकर मान, अंगुल ऊंचाई से सहित अंग-उपांगों से सहित होता मद व मत्सर भाव को छोड़ चुका है तथा निन्दा व है उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं। स्तुति में विषाद व हर्ष को नहीं प्राप्त होता है उस समता--१. सत्तु-मित्त-मणि-पाहाण-सुवण्ण-मट्टि- प्रशस्त व्रतों से संयक्त महापुरुष को समधी कहना यासु राग-दोसाभावो समदा णाम । (धव. पु.८, चाहिए। पृ. ८४) । २. समदा समभाव: जीवित-मरण-लाभा. समनस्क- देखो संज्ञी। १. संज्ञिनः समनस्काः । लाभ-संयोग-विप्रयोग-सुख-दुःखादिषू रागद्वेषयोरकर. (त. सू. दि. २-२४; श्वे. २-२५) । २. सम्प्रणम् । (भ. प्रा. विजयो. ७८)। ३. समस्य भावः धारणसंज्ञायां संज्ञिनो जीवाः समनस्का भवन्ति । समता, राग-द्वेषादिरहितत्वं त्रिकालपंचनमस्कार- सर्वे नारक-देवा गर्भव्युत्क्रान्तयश्च मनुप्यास्तिर्य ग्योकरणं वा । (मूला. वृ. १-२२) । ४. लाभालाभ- निजाश्च केचित् । ईहापोहयुक्ता गुण-दोषविचारसुख-क्लेशप्रमुखे समतामतिः । स्वायत्तकरणस्वान्तः णात्मिका सम्प्रधारणसंज्ञा। तां प्रति संज्ञिनो विवक्षिज्ञानिनः समता मता ॥ (प्राचा. सा. १-३४)। ताः, अन्यथा ह्याहार-भय-मैथुन-परिग्रहसंज्ञाभिः सर्व ५. समता राग-द्वेषहेतुषु मध्यस्थता। (योगशा. एव जीवाः संज्ञिन इति । (त. वा. २-२५) । स्वो. विव. ३-८२, पृ. ५०३)। ६. समता जीवित- ३. मीमंसइ जो पुन्वं कज्जमकज्जं च तच्चमरणादिषु रागद्वेषयोरकरणम् । (अन. घ. टी. ७, मिदरं च । सिक्खइ णामेणेदि य समणो XX Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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