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विमल]
१०१२, जैन-लक्षणावली
[विरताविरत
दिभावानां युगपदसकृत्करणम्, आदिशब्दान्मनोदोषा- विमान-१. विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनो मानन्तरपरिग्रहः; तैवियुक्तं यत्तत्तथा, तद्भावस्तत्त्वम् । यन्तीति विमानानि । (स. सि. ४-१६; त. वा. (रायप. मलय. वृ. ४, पृ. २८)।
४, १६, १)। २. स्वांस्तु कृतिनो दिशेषेण मानविभ्रम, विक्षेप और किलिकिञ्चित इन दोषों से यन्तीति विमानानि । (त. श्लो. ४-१६)। ३. रहित होना; यह एक (२६वां) सत्य वचन का वलहि-कडसमण्णिदा पासादा विमाणाणि णाम । अतिशयविशेष है। वक्ता के मन में जो भ्रान्ति रहा (धव. पु. १४, पृ. ४६५)। ४. विशेषेण सुकृतिनो करती है उसका नाम भ्रम तथा उसी की अभिधेय मानयन्ति विमानानि। (त. भा. सिद्ध. व. ४-१७)। अर्थ के प्रति जो अनासक्ति होती है उसका नाम १ अपने में स्थित जीव विशेष रूप से पुण्यवान विक्षेप है। क्रोध, भय और लोभ प्रादि भावों का माने जाते हैं अतः सौधर्मादि कल्पों को विमान एक साथ निरन्तर करना; इसे किलिकिञ्चित कहा जाता है। ३ जो प्रासाद छज्जों और कटों से कहा जाता है। आदि शब्द से और भी मनोदोषों संयुक्त होते हैं उनका नाम विमान है। का ग्रहण होता है।
विमानप्रस्तार–सग्गलोअसेडिबद्ध-पइण्णया विविमर्श-विमर्शनं विमर्शः अपायात्पूर्व ईहाया उत्तरः । माणपत्थडाणि णाम। (घव. पु. १४, पृ. ४६५)। प्रायः शिर:कण्डयनादयः पुरुषधर्मा पत्र घटन्ते इति स्वर्गलोक में जो श्रेणिवद्ध और प्रकीर्णक विमान हैं सम्प्रत्ययः। (प्राव. नि. मलय. वृ. १२, पृ. ३८)। उनका नाम विमानप्रस्तार है। अपाय (प्रवाय) के पूर्व और ईहा के पश्चात् विमोचितावास-१. परकीयेषु च विमोचितेष्वाशिरःकण्डयन प्रादि पुरुषधर्म यहां घटित होते हैं, वासः (विमोचितावासः) । (स. सि. ७-६)। इस प्रकार के विचार का नाम विमर्श है। यह २. निःस्वामित्वेन संत्यक्ताः गृहा सन्त्युद्वसाह्वयाः । प्राभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायनामों के अन्तर्गत है। प्राग्वदत्रापि वसतिं न कुर्यात्कुर्याद्वा तथा।। (लाटीविमल--१. विगतमलो विमलः, विमलानि वा सं. ६-४०)। ज्ञानादीन्यस्येति विमलः, तथा गर्भस्थे मातुर्मतिस्त- १ दूसरों के द्वारा छोड़े गये घरों में रहना, इसे नश्च विमला जातेति विमलः। (योगशा. स्वो. विमोचितावास कहा जाता है। २ दूसरों के द्वारा विव. ३-१२४) । २. विमलो विनष्टो मलो द्रव्य- छोड़े गये घरों में 'हे देव ! प्रसन्न हो, मैं यहां पांच रूपो मूलोत्तरकर्मप्रकृतिप्रपंचो यस्य । (रत्नक. टी. दिन रहता हूं' इस प्रकार की प्रार्थनापूर्वक रहना,
अन्यथा न रहना; इसका नाम विमोचितावास है। १ जो मल से रहित हो चुका है अथवा जिसके यह प्रचौर्यवत की पांच भावनामों के अन्तर्गत है। ज्ञान प्रादि विमल (निर्दोष) हैं तथा जिसके गर्भ में विमोह-१. विमोहः परस्परसापेक्षनयद्वयेन द्रव्यस्थित होने पर माता की बुद्धि व शरीर विमल गुण-पर्यायादिपरिज्ञानाभावो विमोहः । तत्र दृष्टान्तः (निर्मल) हो गया था; उसका नाम विमल है। -गच्छत्तृणस्पर्शवद् दिग्मोहवद् वा। (बृ. द्रव्यसं. यह तेरहवें तीर्थकर का एक सार्थक नाम है। टी. ४३)। २. विमोहः शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि २ जिसका मल-द्रव्यरूप मूल व उत्तर कर्मप्रकृ. निश्चयस्वरूपम्। (नि. सा. वृ. ५१)। तियों का विस्तार ----विनष्ट हो चका है उसे विमल १परस्पर सापेक्ष दोनों नयों के प्राश्रय से द्रव्य, कहा जाता है। यह प्राप्त (प्ररहन्त) का एक गण और पर्याय आदि का ज्ञान न होना; इसका नामान्तर है।
नाम विमोह है। २ बुद्ध आदि के द्वारा प्ररूपित विमाता-मादा णाम सरिसत्तं, विगदा मादा वस्तु में जो निश्चयस्वरूप ज्ञान होता है, यह विमादा । (धव. पु. १४, पृ. ३०)।
विमोह का लक्षण है। माता का नाम सदृशता है, जो सदृशता से रहित विरताविरत-देखो संयतासंयत । १. जो तसहो उसे विमाता कहा जाता है । विसदृश स्निग्ध व बहाउ विरदो अविरदनो तह य थावरबहादो। एक्करूक्ष परमाणुषों में जो सादिविस्त्रसाबन्ध होता है समयम्हि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई॥ (गो. उसके प्रसंग में यह लक्षण किया गया है।
३१ भावसं. ३५१)। २. विरताविरतस्तु स्यात्
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