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शमिला]
१०५३, जैन-लक्षणावली [शय्यापरिषहक्षमा विपाके क्षणतोऽपि वा ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, प्रदेशाः विकृतांगगुह्यदर्शनकाष्ठमयालेख्य-हास्योपभो६१२)। ५: विरागत्वादिना निविकारमनस्त्वं शमः। गमहोत्सववाहनदमनायूधव्यायामभमयश्च संगकार(प्रलं. चि. टी. ५-२)।
णानीन्द्रियगोचरा मद-मान-शोक-कोप-संक्लेशस्था१ दर्शनमोहनीय स्वरूप मोह और चारित्रमोहनीय- नादयश्च परिहर्त्तव्याः, अकृत्रिमा गिरिगुहा-तरुकोटस्वरूप क्षोभ इन दोनों से रहित प्रात्मा के परिणाम रादयः कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा को शम कहते हैं । चारित्र, धर्म और शम ये समा. अनात्मोद्देशनिर्वत्तिता निरारम्भाः सेव्याः । (चा. सा. नार्थक हैं । ३ दुष्ट अनन्तानुबन्धी कषायों के उद- पृ. ३६)। ३. अनात्मोद्देशनिष्पन्ने नि रारम्भेऽन्ययाभाव का नाम शम है।
सम्भते । शून्यागारादिदेशे न नस्त्री-क्षुद्रनटादिके ॥ शमिला-जवखीली समिला णाम । (धव. पू. पुत्सर्गादिश्रमोच्छित्त्यै शयनासनयोः कृतिः । यते१४, पृ. ५०३)।
रत्यल्पकालं सा शयनासनशुद्धिधी: ।। (प्राचा. सा. बैल के कन्धे पर रखे जाने वाले जएं की कील का ८, ७७-७८)। नाम शमिला है।
१ स्त्री, क्षुद्र जन, चोर, मद्यपायी. जुगारी और शमिलामध्य-दोण्हं समिलाणं मज्झं समिला
व्याध प्रादि पापी जन जहां रहते हों ऐसे स्थानों
को छोड़कर जो शाला प्रादि शृगार, विकार, भूषण मझ । (धव. पु. १४, पृ. ५०३)।।
व उज्ज्वल वेष वाली वेश्यायों की क्रीडातथा मनोहर दो शमिलाओं के मध्य को शमिलामध्य कहते हैं ।
गीत व वादित्रों से व्याप्त हों उनका भी परित्याग शम्भव-शं सुखं भवत्यस्माद् भव्यानामिति शम्भ
करते हुए अकृत्रिम गुफा व वृक्ष के कोटर अथवा वः। (अन. ध. स्वो. टी. ८-३६)।
कृत्रिम सूने घर आदि या छोड़े गये ऐसे स्थानों में जिसके पाश्रय से भव्य जीवों को सुख होता है
रहना जो अपने निमित्त से न बनाये गये हों तथा उसे शम्भव कहा गया है। यह तीसरे तीर्थंकर का
प्रारम्भ से रहित हों; यह सब शयनासनशुद्धि के एक सार्थक नाम है।
अन्तर्गत है। शयनक्रिया-दण्डायतशयनादिका शयनक्रिया । शय्या-शय्या मनोज्ञामनोज्ञवसतिः संस्तारको वा। (भ. प्रा. विजयो. ८६); शयनक्रिया दण्डायतस्वा- (सपवा. अभय.व. २२)। पादिका । (भ. प्रा. मूला. ८६)।
मनोज या अमनोज्ञ वसति अथवा बिछौने को शय्या दण्ड के समान स्थिरता से सोने व करवट आदि के
कहा जाता है। न बदलने का नाम शयन किया है। यह नग्नता के शय्यापरिषहक्षमा-१. स्वाध्याय-ध्यानाध्वश्रमप्रभाव से होने वाले अनेक लाभों में से एक है। परिखेदितस्य मोहूतिकी खर-विषम-प्रचुरशर्करा-कपाशयनासनशुद्धि-- १. संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण लसङ्कटातिशीतोष्णेषु भूमिप्रदेशेषु निद्रा'नुभवतो स्त्री-क्षद्र-चौर-पानाक्षशौण्ड-(त. श्लो. 'स्त्री-वधिक- यथा कृतकपार्श्वदण्डायतादिशायिन प्राणिवाधाचौर-पानशौण्ड'-) शाकुनिकादिपापजनवासा वाः परिहाराय पतितदारुवद् व्यपगतासुबदपरिबर्तमानस्य (त. श्लो. 'वाद्याः'), शृंगारविकारभूषणोज्ज्वलवेष- ज्ञान भावनावहितचेतसोऽनुष्ठित व्यन्तरादिविविधोपवेश्याक्रीडाभिरामगीत-नृत्य-वादित्राकुलशालादयश्च सर्गादप्यचलितविग्रहस्यानियमितकालां तकृतबाधां (त. श्लो. 'च' नास्ति) परिहतंव्याः, अकृत्रिम- क्षममाणस्य शय्यापरिषहक्षमा कथ्यते। (स. सि. गिरिगृहा-तरु- (त. श्लो. 'गुहांतर'-) कोटरादयः ६-६)। २. प्रागमोदितशयनात अप्रच्यवः शय्याकृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अना- सहनम् । (त. वा. , ६, १६; त. श्लो. 8-९); त्मोद्देशनिर्वतिता निरारम्भाः सेव्याः। (त. वा. स्वाध्याय ध्यानाध्वश्रमपरिखेदितस्य मोहूर्तिकी खर६, ६, १६; त. श्लो. ६-६) । २. संयतेन शय- विषम-प्रचुरशर्करा-कपालसंकटातिशीतोष्णेषु भूमिनासन शुद्धिपरेण स्त्री-क्षुद्र-चौर-पानाक्षशोण्ड-शाकुनि- प्रदेशेषु निद्रामनुभवतो यथाकृत्येकपाश्र्वदण्डायतादिः कादिपापजनावासा वाः, शृंगारविकार-भूषणो- शायिनः संजातबाधाविशेषस्य संयमार्थमस्पन्दमान-. ज्ज्वलवेष-वेश्याक्रीडाभिराम-गीत- नृत्य-वादित्राकुल- स्यानुतिष्ठतो व्यन्तरादिभिर्वा वित्रास्यमानस्य पला- ...
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