________________
सत्कार-पुरस्कारपरीषहजय] १०८२, जैन-लक्षणावलो
[सत्तालोक परसमयनिश्चयज्ञस्य हितोपदेशपरस्य कथामार्गकुश- दुर्विचारों को स्थान नहीं देता है वह सत्कारलस्य बहुकृत्वः परवादिविजयिनः प्रणाम-भक्ति-सं- पुरस्कार परीषह का विजेता होता है। भ्रमाऽऽसनप्रदानादीनि मे न कश्चित्करोतीत्येवमवि- सत्ता--१. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतचिन्तयतो मानापमानयोस्तुल्य (चा. सा. 'समान') पज्जाया। भंगप्पाद-धुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि मनसः सत्कार-पुरस्कारनिराकांक्षस्य श्रेयोध्यायिन: एक्का । (पंचा. का. ८; धव. पु. १३, पृ.१६ सत्कार-पुरस्कारजयो वेदितव्यः। (त. बा. ८, ९, उद्.; जयध. १, पृ. ५३ उद्.) । २. ध्रौव्योत्पाद२५; चा. सा. पृ. ५६)। ३. उत्थानं पूजनं दानं लयालीढा सत्ता सर्वपदार्थगा। एकशोऽनन्तपर्याया स्पृहयेनात्मपूजकः । मूछितो न भवेल्लब्धे दीनोऽस- प्रतिपक्षसमन्विता ॥ (योगसारप्रा. २-६)। स्कारितो न च ।। (प्राव. नि. हरि. ५. ६१८, पृ. १ सत् का जो स्वरूप है उसी का नाम सत्ता है। ४०३ उद.)। ४. लौकिकानां धर्मस्थानां वा सत्का- वह सब पदार्थों में स्थित है, क्योंकि सभी पदार्थों रपुरस्काराकरणे तपसि महति वर्तमानोऽप्यहमेतेषां में 'सत्' इस प्रकार का शब्दव्यवहार और 'सत्' न पूजित इति कोपसंक्लेश करणं सत्कार-पुरस्कार. इस प्रकार का ज्ञान उसी सत्ता के प्राश्रय से होता परीषहसहनम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६)। ५. है। विश्व के-समस्त पदार्थों के-उत्पाद, व्यय और सत्कारो भक्त-पान-वस्त्रादिना परतो योगः, पुरस्का- ध्रौव्यरूप तीन स्वभावों के साथ वर्तमान रहने से रः सद्भूतगुणोत्कीर्तनं वन्दनाभ्युत्थानासनप्रदानादि- वह सत्ता विश्व स्वरूप से सहित है। द्रव्यस्वरूप व्यवहारश्च, तत्रासकारितोऽपुरस्कृतो वा न द्वेष होने से वह अनन्त पर्यायों से सहित है। वह भंग यायात्, न दूषयेत्, मनोविकारेणात्मानमिति सत्कार- (व्यय), उत्पाद और ध्रौव्य स्वरूप है; कारण यह पुरस्कारपरीषहजयः । (त. भा. सिद्ध. वृ. 1-९)। कि नित्यानित्यात्मक वस्तु की व्यवस्था इन तीनों ६. ख्यातोऽहं तपसा श्रुतेन च पुरस्कार प्रशंसा नति, पर निर्भर है। तथा वह अपनी प्रतिपक्षभत असत्ता भक्त्या मे न करोति कोऽपि यतिष ज्येष्ठोऽहमेवेति से सहित है - स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यः। ग्लानि मानकृतां न याति स मनिः सत्कार- की अपेक्षा वस्तु जहां सत् है वहां वह परकीय द्रव्य, जातातिजिद् दोषा मे न गुणा भवन्ति न गुणा दोषाः क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा असत् भी है। स्युरित्यन्यतः ।। (प्राचा. सा. ७-२२)। ७. तुष्येन्न इसी प्रकार वह जहां महासत्ता स्वरूप से एक है यः स्वस्य परैः प्रशंसया, श्रेष्ठेषु चाग्रे करणेन कर्मसू। वहीं वह घट-पटादिस्वरूप अवान्तर सत्ताभेदों की प्रामन्त्रणेनाथ विमानितो न वा, रुष्येत् स सत्कार- अपेक्षा अनेक भी है। पुरस्क्रियोमिजित् ।। (अन. ध. ६-१०७)। सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्याथिक-देखो कर्मोपाधिनि१ पूजा-प्रशंसा का नाम सत्कार तथा क्रिया के रपेक्ष शुद्धनय । उप्पाद-वयं गोणं किच्चा जो गहइ प्रारम्भ प्रादि में प्रागे करना व आमन्त्रित करना, केवला सत्ता । भण्णइ सो सुद्धणो इह सत्तागाहो इसका नाम पुरस्कार है । दीर्घ काल से ब्रह्मचर्य का समए । (ल. नयच. १६; द्रव्यस्व. प्र. नयच. पालन करने, घोर तपश्चरण करने, स्व-परमत के १६१)। निर्णय का ज्ञान प्राप्त करने तथा बहुत बार पर- जो उत्पाद और व्यय को गौण करके केवल सत्ता वादियों के ऊपर विजय प्राप्त करने पर भी कोई को ही ग्रहण किया करता है उसे सत्ताग्राहक शुद्धनय मुझे न प्रणाम करता है और न भक्तिपूर्वक प्रासन कहा जाता है। आदि भी देता है। मिथ्यादृष्टि ही अतिशय भक्तिः सत्तालोक-देखो दर्शन (उपयोग)। १. सत्तायुक्त होते हैं, जो कुछ भी न जानने वाले को सर्वज्ञ लोकः सकलहेयोपादेयसाधारणसत्त्वमात्रस्य पालोको जैसा सम्मान देकर अपने मत की प्रभावना करते दर्शनम् पात्मनः प्रथमतः प्रादुर्भवति । (न्यायकु. हैं। व्यन्तर प्रादि तीव्र तपश्चरण करने वाले १-५, पृ. ११६) । २. सत्तालोकः-सत्तायाः समकी पूर्व में पूजा करते थे, यह श्रुति यदि मिथ्या स्तार्थसाधारणस्य सत्त्वसामान्यस्य, पालोको निविनहीं है तो इस समय वे मेरे जैसे तपस्वियों को कल्पकग्रहणं दर्शनम् । (लघीय. अभय. वृ. ५, पृ. पूजा क्यों नहीं करते हैं; इस प्रकार से जो मन में १४) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org