________________
सचित्तदत्तादान]
१०८०, जैन-लक्षणावली
[सज्जाति
ताव नेयं । (उत्तरा. चू. पृ. १६)।
प्राच्छादित करना, इसे सचित्तापिधान कहते हैं। वृक्ष जो पूर्व में पृथ्वी से सम्बद्ध जड़ों से और तत्- यह अतिथिसंविभागवत का एक अतिचार है। पश्चात् उत्तरकाल में स्कन्ध से संयुक्त होता है, इस सचित्ताहार-१. चित्तं चेतनः संज्ञानमुपयोगोऽवप्रकार के संयोग को सचित्तसंयक्तद्रव्यसंयोग जानना
धान मिति पर्यायाः, सचित्तश्चासावाहारश्च सचित्ताचाहिए।
हारः, मूल-कन्दली-कन्दाकादिसाधारणवनस्पतिसचित्तादत्तादान-१. सह चित्तेन सचित्तं द्विपदादि
प्रत्येकशरीराणि सचित्तानि, तदभ्यवहारः, पृथिव्या. लक्षणं वस्तु, तस्य क्षेत्रादौ सुन्यस्त-दुन्य॑स्त-विस्मृतस्य
दिकायिकानां वा सचित्तानाम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. स्वामिनाऽदत्तस्य चौर्यबद्धयादानं सचित्तादानम्, ७-३०) । २. सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः । आदानमिति ग्रहणम् । (प्राव. हरि. वृ. प्र. ६, पृ. चित्तं विज्ञानम्, तेन सह वर्तत इति सचित्तः, चेत८२२)। २. द्विपदादेर्वस्तुनः क्षेत्रादौ सुन्यस्त दुर्य नावद् द्रव्य मित्यर्थः । (त. वा. ७, ३५, १)। स्त-विस्मृतस्य स्वामिना अदत्तस्य चौर्यबुद्धया ग्रहणं ३. सचित्ताहारं खलु सचेतनं मूल-कन्दादिकम् तत्प्रसचित्तादत्तादानम् । (श्रा. प्र. टी. २६५)।
तिबद्धं च वृक्षस्थगुन्द-पक्वफलादिलक्षणम् । (श्रा. प्र. १ खेत प्रादि में अच्छी तरह से या दुष्टता से स्था- टी. २८६)। ४. चेतनावद द्रव्यं सचित्तं हरितकायः, पित द्विपद (दो पांव सहित) प्रादि वस्तु को स्वामी तदभ्यवहरणं सचित्ताहारः । (चा. सा. पृ. १३)। के विना दिये चोरी के विचार से ग्रहण करना, इसे ५. चेतनं चित्तम, चित्तेन सह वर्तते सचित्तः । (त. सचित्तात्तादान कहते हैं। यह प्रचौर्याणुव्रत का एक वत्ति श्रत. ७-३५) । अतिचार है।
१ मूल, कन्दली, कन्द और पाक प्रादि चेतनायुक्त सचित्तान्तर--सचित्तरं उसह-संभवाणं मझे
साधारण या प्रत्येक वनस्पति का उपयोग करना, ट्रिनो अजियो। (धव. पु. ५, पृ. ३)।
अथवा सचित्त पथिवीकायिक प्रादि का उपयोग भगवान ऋषभ और सम्भव जिनेन्द्र के मध्य में जो करना, इसे सचित्ताहार कहते हैं। यह उपभोग. अजितनाथ हए, यह ऋषभ और सभव का सचित्त- परिभोग-परिमाणवत का एक अतिचार है। तव्यतिरिक्त द्रव्यान्तर है।
सच्चारित्र-चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमतकारिसचित्तापदद्रव्योपक्रम - सचित्तापदद्रव्योपक्रमो
तैः । पापक्रियाणां यस्त्यागः सच्चारित्रमुषंति तत् ॥ यथा वृक्षादेर्वृक्षायुर्वेदोपदेशाद् वृद्धयादिगुणकरणं ।
(तस्वानु. २७)। (व्यव. भा. मलय. वृ. पृ. २)।
मन, वचन और काय से तथा कृत, कारित और पांवों से रहित चेतन वृक्ष प्रादि को वृक्षादि से सम्बद्ध
अनुमोदन के द्वारा जो पापाचरण का त्याग किया मायुर्वेद के उपदेशानुसार वृद्धि प्रादि गुण से परि
जाता है, इसे सच्चारित्र या सम्यकचारित्र माना णत करना, इसे सचित्त-प्रपदद्रव्योपक्रम कहा जाता
जाता है। सचित्तापिघान-देखो सचित्तपिधान । १. अपि
सच्छूद्र-१. सकृत्परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्राः । धानमावरणम्, सचित्तेनैव सम्बध्यते सचित्तापिधान
मनीत मन मनितानिधान. (नीतिवा. ७-११, पृ.८४)। २. येषां सकृद्विवाहोमिति । (स. सि. ७-३६)। २. प्रकरणात सचि- ऽस्ति ते चाद्याः। Xxx॥ (धर्मसं. था.. तेनाऽपिधानम् । अपिधानमावरणमित्यर्थः । (त. वा. ७, ३६, २) । ३. सचित्तेनावरणं सचित्तपिधा- १ जिनमें एक ही बार विवाह का व्यवहार प्रचनम् । (चा. सा. पृ. १४)। ४. सचित्तेन अपिधा.
पनिने अपिशा. लित है वे सच्छद्र कहलाते हैं। नम् प्रावरणं सचित्तापिधानम् । (त. वृत्ति श्रुत. सज्जाति-तत्र सज्जातिरित्याद्या क्रिया श्रेयोऽन७-३६)। ५. अपिधानामावरणं सचित्तेन कृतं बन्धिनी। या सा वासन्नभव्यस्य नजन्मोपगमे यदि । स्यात् सचित्तापिधानाख्यं दूषणं व्रतधारिणः॥ भवेत् ॥ स नृजन्मपरिप्राप्ती दीक्षायोग्ये सदन्वये । (लाटीसं. ६-२२८)।
विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ॥ विशद्ध१बेने योग्य भोज्य वस्तुको चेतनायुक्त द्रव्य से कुल-जात्यादिसम्पत् सज्जातिरुच्यते । उदितोदितः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org