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शल्यशास्त्र ]
रिणां बाधाकरं तथा कर्मोदयविकारे शरीर मानसबाघा हेतुत्वाच्छल्यमिव शल्यम् । (चा. सा. पृ. ४) । ५. शृणाति हिनस्तीति शल्यं शरीरानुप्रवेशिकाण्डादि, शल्यमिव शल्यं कर्मोदयविकारः शरीर-मानस - बाघा हेतुत्वात् । ( सा. घ. स्वो टी. ४-१) । ६. शृणाति विध्वंसयति हिनस्तीति शल्यमुच्यते, वपुरनुप्रविश्य दुःखमुत्पादयति वाणाद्यायुधं शल्यम्, शल्यमिव शल्यं प्राणिनां बाधाकरत्वात् शरीरमानस-दुःखकारणत्वात् कर्मोदयविकृतिः शल्यमुपचारात् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-१८ ) ।
१ शरीर में प्रवेश करने वाले बाण आदि जिस प्रकार प्राणी को पीड़ित करते हैं व इसी से उन्हें शल्य कहा जाता है उसी प्रकार शारीरिक व मानसिक बाधा के कारण होने से कर्मोदय के माया व मिथ्यात्वादि रूप विकार को भी शल्य के समान होने से उपचारतः शल्य कहा जाता है । शल्यशास्त्र - शल्यं भूमिशल्यं शरीरशल्यं च, तोमरादिकं शरीरशल्यम्, अस्थ्यादिकं भूमिशल्यम्, तस्यापनयनकारकं शास्त्रं शल्यमित्युच्यते । ( मूला. वृ. ६-३३ ) ।
भूमिशल्य और शरीरशल्य के भेद से शल्य दो प्रकार की है। इसमें बाण आदि को शरीरशल्य तथा हड्डी प्रादि को भूमिशल्य कहा जाता है । इस शल्य के निकालने के उपाय का जिस शास्त्र ( श्रायुर्वेद ) में freपण किया गया है उसे शल्यचिकित्साशास्त्र कहते 1
शशी - सर्वात्मना कमनीयत्वलक्षणमन्वर्थमाश्रित्य चन्द्रः शशीति व्यपदिश्यते । ( सूर्यप्र मलय. बृ. १०५, पृ. २ε२) ।
समस्त रूप से सुन्दर व प्रह्लाद जनक होने से चन्द्रमा को शशी कहा जाता है, यह उसका अन्वर्थक नाम है ।
शंकर - १. Xx X त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । ( भक्तामर २५ ) । २. श सुखम्, श्रात्मनः कर्मकक्षं दग्ध्वा सकलप्राणिनां च धर्मतीर्थं प्रवर्तयित्वा करोतीति शंकर: । (बृहत्स्व. टी. ७१) । ३. XXX शंकरोऽभिसुखावहात् । ( लाटीसं. ४ - १३१) । ४. येन दुःखार्णवे घोरे मग्नानां प्राणिनां दया । सौख्यमूलः कृतो धर्मः शंकरः परिकीर्तिल. १३३
१०५७, जैन- लक्षणावली
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[शाश्वतासंख्यात
तः ॥ ( प्राप्तस्व. २९ ) । २ जो अपने कर्मरूप वन को भस्म करके तथा धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करके समस्त प्राणियों के लिए सुख को करता है उसे शंकर कहा जाता है । यह प्राप्त का एक नामान्तर है । शाकुनिक- शाकुनिक: शकुनवक्ता । ( नीतिवा. १४ - २८, पृ. १७४) ।
शकुन के शुभाशुभ के सूचक निमित्त के- श्राश्रय से उसके फल के बतलाने वाले को शाकुनिक कहा जाता है ।
शाटिका - वहुलियाहि परियत [पारियत्त ] विसर परिहिज्ज माणा साडिया णाम । ( धव. पु.
१४, पृ. ४१) ।
पारियात्र देश में वधूटियों-- अल्पवयस्क बहुनों के द्वारा जो पहिनी जाती हैं उन्हें शाटिका कहा जाता है ।
शान्ति - १. 'शान्ति' इति कर्मदाहोपशमः । (सूत्रकृ. सू. ३, ४, २०, पृ. १०१ ) । २. शान्तियोगात् तदात्मकत्वात् तत्कर्तृत्वाद्वा शान्तिरिति, तथा गर्भस्थे पूर्वोन्नाशिवशान्तिरभूदिति शान्तिः । (योगशा. स्वो विव. ३ - १२४ ) ।
१ कर्मजनित सन्ताप के उपशम का नाम शान्ति है । २ शान्ति के सम्बन्ध से, स्वयं शान्तिस्वरूप होने से, शान्ति के प्रवर्तक होने से, तथा गर्भस्थ अवस्था में पूर्व में उत्पन्न अमंगल के उपशान्त हो जाने से सोलहवें तीर्थंकर 'शान्ति' इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हुए हैं ।
शालाकिक-शलाकया निर्वृत्तं शालाकिकं प्रक्षिपटलाद्युद्घाटनम् । (मूला. वृ. ६-३३ ) । सलाई के द्वारा जो श्रांख की फुली श्रादि को निकाला जाता है उसे शालाकिक क्रिया कहते हैं। शाश्वतानन्त - जं तं सस्सदाणंतं तं धम्मादिदव्वगमं । कुदो ? सासयत्तेण दव्वाणं विणासाभावादो ! X XX अन्तो विनाश:, न विद्यते अन्तो विनाशो यस्य तदनन्तं द्रव्यम्, शाश्वतमनन्तं शाश्वतानन्तम् । ( धव. पु. ३, पृ. १५) । धर्मादिद्रव्यगत जो श्रनन्तता - श्रविनश्वरता है उसे शाश्वतानन्त कहा जाता है । शाश्वतासंख्यात - धम्मत्थियं प्रघमत्थियं दव्वप
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