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शरीरविवेक]
१०५६, जैन-लक्षणावली
[शल्य
शरीरविवेक--१. शरीरविवेकः शरीरेण निरू- नत्यागः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१५३) । प्यते । Xxx शरीरेण स्वशरीरेण स्वशरीरोप- क्रम से भोजन का जो त्याग किया जाता है उसका द्रवापरिहरणम्, शरीरं उपद्ववन्तं नरं तिर्यच देवं वा नाम शरीरसलेखना था शरीरसल्लेखना है। में हस्तेन निवारयति मा कृथा ममोपद्रवमिति, दंश- शरीराङ्गोपाङ्गनाम-१. जस्स कम्मक्खंधस्सुमशक-वृश्चिक-भुजंग-सारमेयादीम् न हस्तेन पिच्छा- दएण सरीरस्संगोवंगणिप्फत्ती होज्ज तस्स कम्मद्यपकरणेन दण्डादिभिर्वा नापसारयति । छत्र-पिच्छ
खंधस्स सरीरंगोवंगं णाम । (धव. पु. ६, पृ. कटकप्रावरणादिना वा न शरीररक्षां करोति ।।
५४); जस्स कम्मस्सुदएण अट्ठण्हमंगाणमुवंगाणं च शरीरपीडां मा कृथा इत्याद्यवचनम्, मां पालयेति णिप्फत्ती होदि तं अंगोवंगणाम । (धव. पु. १३, पृ. वा, शरीरमिदमन्यदचेतनं चैतन्येन सूख-दुःखसंवेदनेन
३६४)। २. यदुदयादङ्गानां शिरःप्रभतीनां उपावाऽविशिष्टमिति वाचा विवेकः । (भ. प्रा. विजयो. ङ्गानां च अगुल्यादीनामविभागो भवति तच्छरी१६६) । २. स्वशरीरेण स्वशरीरोपद्रवापरिहरणं रांगोपाङनाम । (समवा. सू. ४२, पृ. ६४)। शरीरविवेकः। शरीरपीडां मम मा कृथा इति मां जिस कर्मस्कन्ध के उदय से शरीर के अंग और पालयेति वा प्रवचनम्, शरीरमिदमन्यदचेतनमित्यादि।
उपांगों की उत्पत्ति होती है उसका नाम शरीरांगोवचनं वा वाचिकः। (भ. प्रा. मला १६६)।
पांग नामकर्म है। २ जिसके उदय से शिर प्रादि १शरीर यदि किसी प्रकार के उपद्रव से ग्रसित
अंगों और अंगुलि आदि उपाङ्गों का विभाग होता है तो अपने शरीर के द्वारा उसका प्रतीकार न है उसे शरीरांगोपांग नामकर्म कहते है। करना; उपद्रव करने वाला जो कोई मनुष्य, तियंच
शरीरिबन्ध-जीवपदेसाणं जीवपदेसेहि पंचसरीअथवा देव हो उसे 'मेरे ऊपर उपद्रव न करो' इस
रेहि य जो बंधो सो सरीरिबंधो णाम । (धव. पु. अभिप्राय के वश हाथ से न रोकना; डांस, मच्छर,
१४, पृ. ३७)। बिच्छू, सर्प व कुत्ता मादि को हाथ से व पीछी श्रादि
जीव के प्रदेशों का जीव के प्रदेशों के साथ तथा उपकरण से अथवा लकड़ी प्रादि के द्वारा नहीं
पांच शरीरों के साथ जो बंध होता है उसे शरीरिहटाना; छत्र (छाता), पीछी अथवा चटाई प्रादि
बन्ध कहते हैं। ओढ़नी के द्वारा शरीर की रक्षा न करना; इस सबको कायिक शरीरविवेक कहा जाता है। 'मेरे
शरीरी-सरीरमेयस्स अस्थि त्ति शरीरी। (धव. शरीर को पीड़ित न करो' इस प्रकार का अथवा पु. १, पृ. १२०); शरीरमस्यास्तीति शरीरी। 'मेरी रक्षा करो' इस प्रकार का वचन न बोलना (धव. पु. ६, पृ. २२१); सरीरी णाम जीवा । तथा यह शरीर भिन्न, अचेतन एवं सुख-दःख के (धव. पु. १४, पृ. २२४) । संवेदन की विशेषता से रहित है, इस प्रकार कहना; शरीर जिसके होता है उसे शरीरी (जीव) कहा यह वाचनिक शरीरविवेक कहलाता है।
जाता है। शरीरसंघातनामकर्म-जेहि कम्मक्खंधेहि उदयं शल्य--१. शृणाति हिनस्तीति शल्यं शरीरानपत्तेहि बंधणणामकम्मोदएण बंधमागयाणं सरीर. प्रवेशिकाण्डादिप्रहरणम्, शल्यमिव शल्यम्, तत् यथा
खंघाणं मदृत्तं कीरदे तेसि सरीरसंघाद- प्राणिनो वाधाकरं तथा शरीर-मानसवाधाहेतुत्वात्कसण्णा । (धव. पु. ६, प. ५३); जस्स कम्मस्स र्मोदयविकारः शल्यमित्युपचर्यते । (स. सि.७-१८)। उदएण अण्णोण्णसंबद्धाणं वग्गणाणं मत्तं तं सरीर- २. अनेकधा प्राणिगणशरणाच्छल्यम् । विविधवेदनासंघादणामं । (धव. पु. १३, पृ. ३६४)। शलाकाभिः प्राणि गणं शृणाति हिनस्तीति शल्यम् । उदय को प्राप्त जिन पुदगलस्कन्धों के द्वारा बंधन (त. वा. ७, १८, १)। ३. श्रणाति हिनस्तीति नामकर्म के उदय से बन्ध को प्राप्त हुए शरीरगत शल्यं शर-कण्टकादि शरीरादिप्रवेशितेन तुल्यं पुद्गलस्कन्धों की मृष्टता (शुद्धि या चिक्कणता) यत्प्राणिनो बाधानिमित्तम् । अन्तनिविष्टं परिणामकी जाती है उनका नाम शरीरसंघात नामकर्म है। जातं तच्छल्यम । (भ. प्रा. विजयो. १२१४) । शरीरसंलेखना-तत्र शरीरसंलेखना क्रमेण भोज- ४. यथा शरीरानुप्रवेशिकाण्ड-कुन्तादिप्रहरणं शरी
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