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शुद्धपर्यायाथिकनय १०६३, जैन-लक्षणावली
[शुभचयों शुद्धपर्यायाथिकनयं-सत्तागौणत्वेनोत्पाद व्ययग्रा- बलम्बन, राग, द्वेष, मूढता, भय, परिग्रह, राग, शल्य हकस्वभावोऽनित्यशुद्ध द्रव्याथिकनयः, यथा-समयं काम, क्रोध, मान और मद इन समस्त दोषों से समयं प्रति पर्याया विनाशिनः । (पालापप. पू. रहितं होने के कारण शुद्ध कहा जाता है । २१५)।
शुद्धि-१. शुद्धिश्च चित्तप्रसादलक्षणा । (प्राव. जो सत्ता को गौण करके उत्पाद-व्यय स्वरूप अनित्य नि. हरि. व. १२४३, पृ. ५६२) । २. ज्ञान-दर्शनाशुद्ध द्रव्य को विषय करता है उसे अनित्य शुद्धद्रव्या- वरणविगमादमलज्ञान-दर्शनाविभूतिः शुद्धिः । (युक्त्यथिकनय कहते हैं। जैसे पर्याय प्रत्येक समय नष्ट । मैं. टी. ४)। ३. सकलकर्मापायो हि शुद्धिः। (भ. होने वाली हैं।
मा. विजयो. टी. ७)। शुद्धसंग्रह ---१. अवरे परमविरोहे सर्व अस्थित्ति १ चित्त का प्रसन्न रहना, यही शुद्धि का लक्षण है। सुद्धसंगहणो। (ल. नयच ३६) । २. अवरोप्परम- २ज्ञानावरण और दर्शनावरण के विनष्ट हो जाने विरोहे सव्वं अत्थित्ति सुद्धसंगहणे । (द्रव्यस्व. प्र. से जो निर्मल ज्ञान और दर्शन का प्राविर्भाव होता नयच. २०८)।
है उसे शद्धि कहा जाता है। २ परस्पर के विरोध से रहित 'सब है' इस प्रकार शुद्धोपयोग-श्रमण- १. सुविदिदपदत्थसुत्तो संजमका जिसका विषय है, अर्थात् जो सत्ता सामान्य को तवसंजुदो विगदरागो । समणो समसुह-दुक्खो भणिदो विषय करता है, उसे शुद्धसंग्रहनय कहा जाता है। सुद्धोवनोगो त्ति ।। (प्रव. सा. १-१४) । २. कर्माशुद्धसंप्रयोग-अहंदादिषु भगवत्सु सिद्धि साधनी- दानक्रियारोध: स्वरूपाचरणं च यत् । धर्मः शुद्धोपभूतेषु भक्तिबलानुरजिता चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसंप्र- योगः स्यात्सष चारित्रसंज्ञिकः ॥ (लाटीतं. ४, योगः । (पंचा. का. अमृत. व. १६५)। २६३) । ३. शुद्धात्मज्ञानदक्ष: श्रुतनिपुणतिर्भावसिद्धि के कारणभूत अरहंत प्रादि परमेष्ठियों के दर्शी पुरापि, चारित्रादिप्ररूढो विगतसकलसंक्लेशविषय में जो गुणानुरागरूप भक्ति से अनुरंजित भावो मुनीन्द्रः । साक्षाच्छुद्धोपयोगी स इति नियममन का व्यापार होता है उसे शुद्धसंप्रयोग कहते हैं। वाचावघार्येति सम्यक्कर्मध्नोऽयं सुखं स्यान्नयविभशुद्धात्मा-१. णिइंडो णिइंदो णिम्ममो णिक्कलो जनतो (?) सद्विकल्पोऽविकल्पः । (अध्यात्मक. णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो ३-१८)। अप्पा ॥ णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोस- १ जिसने पदार्थों के प्ररूपक सूत्र (परमागम) को णिम्मुक्को । णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्म- भली भांति जान लिया है, जो तप व संयम से दो अप्पा । (नि. सा. ४३-४४) । २. यो हि युक्त होकर राग से रहित है, तथा सुख व दुःख में नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनन्तो नित्योद्योतो विश- समान रहता है उसे शुद्धोपयोगी श्रमण कहा जाता दज्योतिर्ज्ञायक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबन्धपर्याय निरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलः सममे- शुभकाययोग-१. अहिंसाऽस्तेय-ब्रह्मचर्यादि: शुभकत्वेऽपि द्रव्य स्वभावनिरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदय- काययोगः । (त. वा. ६, ३)। २. प्राणिरक्षणावैचित्र्यवशेन प्रवर्त्तमानानां पुण्य-पापनिवर्तकानामु- चौर्य ब्रह्मचर्यादिः शुभः काययोगः । (त. वृत्ति ध्रुत. पात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिण- ६-३)। मनात् प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवत्येष एवाशेषद्रव्यान्त- १ हिंसा न करना, चोरी न करना और ब्रह्मचर्य रभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्धमान: शुद्ध इत्यभिलप्यते। का परिपालन करना; इत्यादि यह शुभ काययोग (समयप्रा. अमृत. व. ६)। ३. सुद्धो जीवसहावो कहलाता है। जो रहियो दव्व-भावकम्मेहिं । सो सुद्धणिच्छयादो शुभचर्या-प्ररहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणासमासिनो सुद्धणाणीहि ॥ (द्रव्यस्व. प्र. नयच. भिजुत्तेसु । विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता ११४)।
भवे चरिया ।। (प्रव. सा. ३-४६)। १ प्रात्मा को स्वभावतः शुद्ध होकर मनदण्ड प्रादि यदि श्रमण अवस्था में परहन्त प्रादि में गुणानुराग तीन प्रकार के दण्ड, प्राकुलता, ममता, शरीर, पराल रूप भक्ति है तथा प्रवचन (मागम या संघ) में जो
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