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श्रुतज्ञान] १०७१, जैन-लक्षणावली
[श्रुताज्ञान तमाह जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जमा सुदकेवली संपादक सकलविमलप्रत्यक्ष ज्ञानबीजं समीचीनदर्शनतह्मा । (समयप्रा. ९-१०)।
चरणप्रवर्तकमिति निरूपणं श्रुतवर्णजननम् । (भ. जो श्रुत के द्वारा केबल (असहाय) शुद्ध इस प्रारमा प्रा. मूला. ४७)। को जानता है उसे लोक के प्रकाशक ऋषि जन श्रुत- १ श्रुतज्ञान केवलज्ञान के समान समस्त जीवादि केवली कहते हैं। यह श्रुतकेवली का यथार्थ लक्षण द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने में समर्थ, है। जो समस्त श्रुतज्ञान को जानता है उसे जिन देव कर्म के निर्मूलन में उद्यत, उत्तम ध्यान रूप चन्दन श्रुतकेवली कहते हैं यह श्रुतकेवली का प्रौपचारिक के लिए मलय पर्वत के समान, अपने व दूसरों के लक्षण है। यतः सब ज्ञान ही प्रात्मा है, अतः जो उद्धार में निरत, शिष्य जन को अभीष्ट, प्रशभ श्रतज्ञान से अभिन्न प्रात्मा को जानता है उसे श्रत- प्रास्रव का निरोधक, प्रमाद को नष्ट करने वाला, केवली कहना यथार्थ है।
सकल और विकल प्रत्यक्षज्ञान का उत्पादक तथा श्रुतज्ञान-देखो श्रुत।
समीचीन दर्शन व चारित्र का प्रवर्तक है; इत्यादि श्रुतधर्म-श्रुतस्य धर्म: स्वभावः श्रुतधर्मः, श्रुतस्य । प्रकार से श्रुत की महिमा के प्रगट करने को श्रुतबोधस्वभावात् श्रुतस्य धर्मो बोधो बोद्धव्यः, अथवा ज्ञानवर्णजनन कहा जाता है। श्रुतं च तत् धर्मश्च सुगतिधारणात् श्रुतधर्मः, यदि श्रुतविनय-सुतं अत्थं च तहा हिय निस्सेसं तहा वा जीवपर्यायत्वात् श्रुतस्य श्रुतं च तत् धर्मः श्रुत- पवाएइ । एसो चउविहो खलु सुयविणग्रो होइ धर्मः । उक्तं च-बोहो सुयस्य धम्मो, सुयं च धम्मो नायब्वो ॥ सुतं गाहेइ उज्जुत्ते अत्थं च सुणावए स जीवपज्जातो। सगईए संजमंमि य धरणातो वा पयत्तेण । जं जस्स होइ जोग्गं परिणामगमाइणं सुयं धम्मो ।। (प्राव. नि. मलय. वृ. १२७)। तु हियं ॥ णिस्सेसमपरिसेसं जाव समत्तं तु वाएइ । श्रुत का स्वभाव जो बोध है उसे ही श्रुतधर्म कहा एसो सुयविण्णत्तो Xxx। (व्यव. भा. १०, जाता है, अथवा जो सुगति में धारण करता है ३१२-१४) । उसका नाम धर्म है, तदनुसार श्रुत को ही श्रुतधर्म सूत्रग्राहण, अर्थश्रावण, हितप्रदान और निःशेषवा. समझना चाहिए।
चन के भेद से श्रुतविनय चार प्रकार का है। श्रुतमानवशार्तमरण- लोक-वेद-समय-सिद्धान्त- उद्युक्त होकर शिष्य को सूत्र का ग्रहण कराना, यह शास्त्राणि शिक्षितानि इति श्रुतमानोन्मत्तस्य मरणं सूत्रग्रहण विनय है। प्रयत्नपूर्वक जो प्र श्रुतमानवशार्त्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. जाता है उसे अर्थश्रावण विनय कहते हैं। जिसके ८६)।
लिए जो जो योग्य है उसके लिए सूत्र व अर्थ से मैंने लोक, वेद और स्व-समय व पर-समय सम्बन्धी उसी को जो दिया जाता है, इसका नाम हितप्रदान पागम ग्रन्थों को पढ़ा है, इस प्रकार के शास्त्रज्ञान विनय है। समाप्ति पर्यन्त जो वाचन किया जाता से उन्मत्त हुए पुरुष के मरण को श्रुतमानवशाता है उसे निःशेषवाचन विनय कहते हैं। मरण कहा जाता है।
श्रुतस्थविर-१. श्रुतस्थविरः समवायाङ्गं यावश्रुतवर्णजनन-१. केवलज्ञानवदशेषजीवादिद्रव्य- दध्येता। (योगशा. स्वो. विव. ४-६०) । २. श्रुतयाथात्म्यप्रकाशनपटु कर्म-धर्मनिर्मूलनोद्यतशुभध्या- स्थविरः समवायधरः । (प्राव. नि. मलय. वृ. नचन्दनमलयायमानं स्व-परसमुद्धरणनिरतविनेय- १७६)। ३. स्थान-समवायधरः श्रुतस्थविरः । जनताचित्तप्रार्थनीयं प्रतिबद्धाशुभासवं अप्रमत्त- (व्यव. भा. मलय. व. १०-७४६)। तायाः संपादकं सकल-विकलप्रत्यक्षज्ञानबीजं दर्शन- १ समवायांग के धारक साधु को श्रुतस्थविर कहा चरणयोः समीचीनयोः प्रवर्तकं इति निरूपणा श्रुत- जाता है। ३ जो स्थानांग व समवायांग इन दो वर्णजननम् । (भ. प्रा. विजयो. ४७) । २. श्रुत- अंगों का धारक होता है वह श्रुतस्थविर कहलाता ज्ञानं हि केवलज्ञानवद्विश्वतत्त्वावभासि कर्म नोद्यतशुभध्याननिदानं स्व-परसमुद्धरणनिरतविनेय- श्रुताज्ञान-प्राभीयमासुरक्खा भारह-रामायणादिजनताप्रार्थनीयं प्रतिबद्धाशुभास्रवं अप्रमत्ततायाः उवएसा । तुच्छा असाहणीया सूय अण्णाण त्ति णं
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