Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 410
________________ सक्ता ] १०७७, जैन-लक्षणावली [सचित्तगुणयोग सक्ता --१. सजणसंबंध-मित्तवग्गादिसु संजदि त्ति भा. सिद्ध. व. ५-२४, प. ३६०)। सत्ता । (धव. पु. १, प. १२०); स्वजन-संबन्धि- करोंत और लकड़ी प्रादि के घर्षण से जो शब्द मित्रवर्गादिषु सजतीति सक्ता। (धव. पु. ६, प. उत्पन्न होता है उसे सङ्घर्ष शब्द कहा जाता है। २२१) । २. परिग्गहेसू सजदि त्ति सत्ता। (अंगप. सचित्त--१. प्रात्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम, ८६-८७, पृ. २६५)। सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः। (स. सि. २-३२); १ जो अपने कुटुम्बी जन, सम्बन्धी और मित्रों के सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तं चेतनावद द्रव्यम् । समह आदि में प्रासक्त रहता है उसे सक्ता कहा (स. सि.७-३५) । २. प्रात्मनः परिणामविशेषजाता है। यह जीव का पर्याय नाम है। श्चित्तम । प्रात्मनश्चैतन्यस्य परिणामविशेषश्चित्तम, सक्रम-१. सो संकमो त्ति वच्चइ जब्बंधनपरि- तेन सह वर्तन्त इति सचित्ताः। (त. वा. २, ३२, णमो पोगेणं । पगयंतरत्थदलियं परिण मइ तयण- १); सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः। चित्तं विभावे जं ।। (कर्मप्र. सं. क. १)। २. यां प्रकृति ज्ञानम, तेन सह वर्तत इति सचित्तः चेतनावद् द्रव्यबध्नाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थ दलिक मित्यर्थः । (त. वा. ७, ३५, १)। ३. सह चित्तेन वीर्यविशेषेण यत्परिणमयति स: संक्रमः । (स्थानां. बोधेन वर्तते हि सचित्तकम् । (धर्मसं. श्रा. ८-१४)। अभय. वृ. २६६)। ३. एतदुक्तं भवति..-बध्यमा- ४. जीवस्य चेतनाप्रकार: परिणामश्चित्तम्, चित्तेन नासू प्रकृतिषु मध्येऽबध्यमानप्रकृतिदलिकं प्रक्षिप्य सह वर्तते सचित्तः । (: वृत्ति श्रुत. २-३२) । बध्यमानप्रकृतिरूपतया यत्तस्य परिणमनम, यच्च वा १ प्रात्मा के चैतन्य परिणामविशेष का नाम चित्त बध्यमानानां प्रकृतीनां दलिकरूपस्येतरेतररूपतया है, जो चित्त के साथ रहता है उसे सचित्त कहते हैं। परिणमनं तत सर्व संक्रमण मित्युच्यते । (कर्मप्र. सचित्तकाल-तत्थ सच्चितो जहा दंसकालो, मलय. वृ. सं. क. १)। मसयकालो इच्चेवमादी दंस-मसयाणं चेव उवयारेण १ जिस कर्मप्रकृति के बांधने रूप से परिणत जीव कालत्तविहाणादो। (घव. पु. ११, पृ.७६) । संक्लेश अथवा विशुद्धिरूप प्रात्मपरिणाम के द्वारा दंशकाल व मशककाल इत्यादि को सचित्तकाल कहा अबध्यमान प्रकृति के द्रव्य को बध्यमान प्रकृति के जाता है। यहां निमित्तवश उपचार से दंश-मशक रूप से परिणमाता है उसे, तथा बध्यमान प्रकृतियों के को ही कालपने का विधान किया गया है। दलिक का जो परस्पर के रूप में परिणमन होता सचित्तक्षेपण-सचित्ते सजीवे पृथ्वी-जल-कुम्भोपहै उसे, संक्रमण कहा जाता है। चुल्लीधान्यादौ क्षेपणं निक्षेपो देयस्य वस्तुनः, तच्च सङ्घ-१. सङ्घश्चतुर्विधः श्रमणादिः । (त. भा. अदानबुद्धया निक्षिपति, एतज्जानात्यसो तुच्छबुद्धिः सिद्ध. वृ. ६-२४) । २. गुणसमुदायो संघो पवयण यत् सचित्तनिक्षिप्तं न गृह्णते साधव इत्यतो देयं तित्थंति होंति एगदा । (पंचाश. ३८३)। ३. सङ्गः चोपस्थाप्यते, न चाददते साधव इति लाभोऽयं ममेति समूहः सम्यक्त्व-ज्ञान-चरणानां तदाधारश्च साध्वा- प्रथमोऽतिचारः। (योगशा. स्वो. विव. ३-११६) । दिश्चतुर्विधः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२३); सङ्ग- साधु सचित्त पथिवी प्रादि पर रखे भोज्य पदार्थ श्चतुर्विधः साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकाः । (त. भा. को नहीं लेते हैं, यह जानते हुए यदि न देने की सिद्ध. व. १-२४) । ४. संघो गणसमदायः। इच्छा से किसी भोज्य वस्तु को सचित्त पृथ्वी प्रादि (प्रोपपा. व. २०, पृ. ४३) । ५. सङ्घः साधु- के ऊपर रखा जाता है तो यह अतिथिसंविभागसाध्वी-श्रावक-श्राविकासमुदायः । (योगशा. स्वो. ब्रत को दूषित करने वाला उसका एक अतिचार विव. ४-६०)। होता है। १ चार प्रकार के श्रमण प्रादि-साधु, साध्वी, सचित्तगुणयोग --सचित्तगुणजोगो पंचविहो-प्रोदश्रावक और श्राविका–को संघ कहा जाता है। इग्रो प्रोवसमियो खइनो ख प्रोवसमियो पारिणामि२ सम्यक्त्व प्रादि गणों के समदाय को संघ कहते पो चेदि (प्रोदइय-प्रोवसमिय-खइयादिजीवभावेहि हैं । ४ गणों के समुदाय को संघ कहा जाता है। सह जीवस्स जो जोगो सो सचित्तगुणजोगो) । सङ्घर्ष -क्रकच-काष्ठादिसङ्घर्षप्रसूतः सङ्घर्षः । (त. (धव. पु. १०, पृ. ४३३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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