Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 408
________________ षट्खण्डाधिपति] १०७५, जैन-लक्षणावली सिकलदत्ति होता है। २ समुदित पाठ लीखों का एक श्वेत- जननेन्द्रिय, मृदु भाषण, शब्द व फेन के साथ मूत्र; सिद्धार्थ होता है। ये छह लक्षण नपुंसक के हैं। षटखण्डाधिपति-देखो चक्रवर्ती। १.'छक्खंड- षष्ठभक्त-षष्ठमिह षष्ठयां भोजनवेलायां पारणा। भरहणाहो बत्तीससहस्समउडबद्धपहुदोयो। होदि हु (प्राय. स. टी. १-१०)। सयलं चक्की xxx। (ति. प. १-४८)। छठी भोजनबेला में पारणा करने को षष्ठभक्त २. षटखण्डभरतनाथं द्वात्रिंशद्धरणिपतिसहस्राणाम् । कहा जाता है। दिव्यमनुष्यं विदुरिह भोगागारं सुचक्रधरम् ॥ (धव. षष्ठी प्रतिमा-(पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितः) षण्मापु. १, पृ. ५८ उद्.)। ३. द्वात्रिंशत्सहस्रराजस्वामी सान् ब्रह्मचारी भवतीति षष्ठी। (योगशा. स्वो. षट्खण्डाधिपतिः । (त्रि. सा. वृ. ६८५)। विव. ३-१४८)। १ जो छह खण्डभत भरतक्षेत्र का स्वामी होकर पूर्व पांच प्रतिमाओं के अनुष्ठान का पालन करने बत्तीस हजार मुकुटबद्ध आदि राजाओं को अपने वाला जो छह माह ब्रह्मचारी रहता है, इसे षष्ठी प्राधीन रखता है वह सकलचको माना जाता है। (छठी) प्रतिमा कहा जाता है। इसी को सकलचक्राधिपति या षटखण्डाधिपति भी सकल -अखण्डत्वात् सकलम् । xxx अथवा कहा जाता है। कलास्तावदवयवा द्रव्य-गुण-पर्ययभेदागमान्यथानुपषट्स्थानवृद्धि --- अणंतभागवड्ढी असंखेज्ज भाग- पत्तितोऽवगतसत्त्वाः, सह कलाभिर्वर्तत इति सकलम् वडढी संखेज्जभागवडढी संखेज्जगुणवढी असंखेज्ज- xxx केवलज्ञानम । (धव. पू १३, पृ. ३४५)। गुणवड्ढी अणंतगुणवड्ढि त्ति छट्ठाणवड्ढी । (धव. केवलज्ञान प्रखण्ड होने से सकल है । द्रव्य, गुण और पु. ६, पृ. २२)। पर्याय भेदों के ज्ञापक अवयवों का नाम कला है, अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात गिवृद्धि, संख्यातभाग- इन कलापों के साथ रहने वाले ज्ञान को सकल वृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अन- कहा जाता है। समस्त द्रव्य-गुणादि को विषय करने न्तगुणवृद्धि ये छह स्थानपतित वृद्धि के रूप हैं। वाला ऐसा वह ज्ञान केवललान ही सम्भव है। षट्स्थानहानि-अणंतभागहाणी असंखेज्जभाग- सकलचारित्र-xxx तत् (चरणम्) सकलं हाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्ज- सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां xxx ॥ गुणहाणी अणंतगुणहाणि त्ति छट्ठाणहाणी। (धव. (रत्नक. ५०)। पु. १६, पृ. ४६३)। ___ समस्त परिग्रह का जो परित्याग कर चुके हैं ऐसे अनन्तभागहानि, प्रसंख्यातभागहानि, संख्यातभाग- गृह के त्यागी मुनियों के चारित्र को सकलचारित्र हानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और कहा जाता है। अनन्तगुणहानि ये छह स्थानपतित हानि के रूप सकलजिन-खवियघाइकम्मा सयलजिणा। के . ते ? अरहंत-सिद्धा। (धव. पु. ६, पृ. १०)। षड़जीवकायसंयम-षण्णां जीवनिकायानां पृथि- घातिया कर्मों का क्षय कर देने वाले सयोग केवव्यादिलक्षणानां संयमः संघट्टनादिपरित्यागः षड्जीव- लियों को सकलजिन कहा जाता है। कायसंयमः । (प्राव. भा. हरि. व. १६३, पृ. सकलदत्ति--देखो अन्वयदत्ति । १. प्रात्मान्वय४६२)। प्रतिष्ठार्थ सूनवे यदशेषतः। समं समय-वित्ताभ्यां पृथिवी आदि पांच स्थावर और त्रस इन छह जीव- स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥ सैषा सकलदत्तिः स्यात् x निकायों के संयम को-उनके संघटन आदि के xx। (म. पु. ३८, ४०-४१)। २. सकलदत्तिपरित्याग को-षड्जीवकायसंयम कहा जाता है। रात्मीयस्वसन्ततिस्थापनार्थ पुत्राय गोत्रजाय वा धर्म षण्ड-नारीस्वभाव-स्वर-वर्णभेदो मेढ़ो गरीयान् धनं च समर्प्य प्रदानम्, अन्वयदत्तिश्च सैव। (चा. मृदुला च वाणी । मूत्रं सशब्दं च सफेनकं च एतानि सा. पृ. २१; कातिके. टी. ३६१)। ३. समर्थाय षट् षण्ढकलक्षणानि ।। (प्राचारदि. पृ. ७४) । स्वपुत्राय तदभावेऽन्यजाय वा। यदेतद् दीयते वस्तु स्त्री-स्वभाव के समान स्वरभेद व वर्णभेद, गहतर- स्वीयं तत्सकलं मतम् ।। (धर्मसं. श्रा. ९-१९७) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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