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शरीरनामकर्म]
१०५५, जैन-लक्षणावली [शरीरबन्धननामकर्म घाः शरीरयोग्यपरिणामः परिणता जीवेन परिणत पुदगलस्कन्धों को प्रस्थि (हडी) प्रादि सम्बन्ध्यन्ते तस्य शरीरमिति संज्ञा। (मला. प. स्थिर अवयवों स्वरूप से तथा तैल समान रसभाग २२-२६३)। ४. शरीरनाम यदयादौदारिकादि को रस, रुधिर, चर्वी और वीर्य प्रादि द्रवरूप प्रव. शरीरं करोति । (समवा. व. ४२)।
यवों के द्वारा प्रौदारिक प्रादि तीन शरीररूप परि. १ जिसके उदय से प्रात्मा के शरीर की रचना होती णमन की शक्ति से यक्त स्कन्धों की जो प्राप्ति होती है उसे शरीर नामकर्म कहते हैं। २ जिसके उदय है उसे शरीरपर्याप्ति कहते हैं। २ रस की जो से प्राहारवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध तथा तेजस और सात धातुनों स्वरूप परिणत होने की शक्ति कार्माण वर्गणा के प्रदगलस्कन्ध शरीरयोग्य परि. है उसका नाम शरीरपर्याप्ति है। णामों से परिणत होकर जीव के साथ सम्बन्ध को शरीरवकुश-१. शरीरसंस्कारसेवी शरीरवकुशः । प्राप्त होते हैं उस पुदगलस्कन्ध को शरीरनाम. (स. सि. ९-४७; त. वा. ६, ४७, ४; चा. सा. कर्म कहा जाता है। ४ जिसके उदय से प्रौदारिक पृ. ४६)। २. वपुरभ्यंग-मदन-क्षालन-विलेपनादि. मावि शरीर को करता है वह शरीर नामकर्म संस्कारभागी शरीरवकुशः । (त. वृत्ति श्रुत. ६, कहलाता है। शरीरनिवत्तिस्थान-सरीरपज्जत्तीए पज्जत्ति- जो मनि शरीर के संस्कार को अपनाता है उसे णिवत्ती सरीरणिव्वत्तिद्वाणं णाम । (धव. पु. १४, शरीरवकुश कहा जाता है। १.५१६)।
शरीरबन्ध-पंचण्णं सरीराणमण्णोण्णण [जो] शरीरपर्याप्ति से पर्याप्तिनिर्वृत्ति का नाम शरीर- बंधो सो शरीरबंधो णाम । (घब. पु. १४, पृ. ३०)। निवृत्तिस्थान है।
पांच शरीरों का जो परस्पर में बन्ध होता है उसे शरीरपर्याप्ति-१. तं खलभागं तिलखलोपम- शरीरबन्ध कहते हैं। मस्थ्यादिस्थिरावयवैस्तिलतलसमानं रसभागं रस- शरीरबन्धननामकर्म-१. सरीरटुमागयाणं पोरुधिर-वसा-शुक्रादिद्रवावयवैरीदारिकादिशरीरत्रयप- गलक्खंधाणं जीवसंबद्धाणं जेहि पोग्गले हि जीवरिणामशक्त्युपेतानां स्कन्धानामवाप्तिः शरीरपर्या- सम्बद्धेहि पत्तोदएहि परोप्परं बंधो कीरइ तेसि प्ति: । (धव. पु. १, पृ. २५५); प्रागदपोग्गलेसु पोग्गलक्खंधाणं सरीरबंधणसण्णा । (धव. पु. ६, पृ. अंतोमुहुत्तेण सत्तधादुसरूवेण परिणदेसु सरीरपज्ज- ५२-५३); जस्स कम्मस्स उदयेण जीवेण संबद्धाणं ती णाम । (धव. पु. १४, पृ ५२७) । २. शरीर- वग्गणाणं अण्णोण्णं संबधो होवि सं कम्मं सरीरपर्याप्तिः सप्तधातुतया रसस्य परिणमनशक्तिः । बंधणणाम । (धव. पु. १३, पृ. ३६४) । २. शरी(स्थानां. अभय. वृ. ७२) । ३. खलभागं तिल- रार्थागतपुद्गलस्कन्धानां जीवसम्बन्धा [द्धानां यः खलोपमास्थ्यादिस्थिरावयस्तिलतलसमानं रसभागं पदगलस्कन्धः प्राप्तोदयैरन्योन्यसंश्लेषणसम्बन्धी रस-रुधिर-वसा-शुक्रादिद्रव्यं तदवयवपरिणमनशक्ति- भवति तच्छरीरबन्धनं नामकर्म । (मला. वृ. १२, निष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः । (मूला. व. १२-१९६)। १९३)। ३. प्रौदारिकादिशरीरपुद्गलानां पूर्व४. तिलखलोपमं खलभागं अस्थ्यादिस्थिरावयवरूपे- बद्धानां बध्यमानानां च सम्बन्धकारणं शरीरबन्धनण तैलोपमं च रसभागं रुधिरादिद्रवायवरूपेण परिण- नाम । (समवा. वृ. ४२) । मयितुं पर्याप्तनामकर्मोदयसहितस्य पात्मनः शक्ति- १जीव से सम्बद्ध होकर उदय को प्राप्त हुए जिन निष्पत्ति: शरीरपर्याप्तिः । (गो. जी. म.प्र.११६) पुगलस्कन्धों के द्वारा शरीर के निमित्त पाकर ५. तथा- (खल-रसभागेन) परिणतपुदगलस्कन्धानां जीव से सम्बद्ध हए अन्य पुदगलस्कन्धों के साथ खलभागं अस्थ्यादिस्थिरावयवरूपेण रसभागं रुधि- परस्पर में सम्बन्ध किया जाता है उन पुदगलस्कन्धों रादिद्रवायवरूपेण च परिणमयितं शक्तिनिष्पत्तिः का नाम शरीरबन्धन है। ३ जो पूर्वबद्ध और वर्तशरीरपर्याप्तिः । (गो. जी. जी. प्र. ११९ कातिके. मान में बांधे जाने वाले प्रौदारिक प्रादि शरीरगत टी. ११६)।
पुद्गलों के सम्बन्ध का कारण है उसे शरीरबन्धन १तिलों के खलभाग के समान खलभागरूप से नामकर्म कहते है।
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