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शाश्वती जिनप्रतिमा] १०५८, जैन-लक्षणावली
[शिलासंस्तर देसगणणं पडुच्च एगसरूबेण सद्विदमिदि कटु में से बह एक है।
सदासंखेज्जयं । (घव. प्र.३. पृ. १२४)। शिक्षाव्रत-शिक्षाय अभ्यासाय व्रतं शिक्षाव्रतम], धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों द्रव्य देशावकाशिकादीनां प्रतिदिवसाभ्यसनीयत्वात् । प्रदेशों की गणना की अपेक्षा एकरूप से अवस्थित xxx अथवा शिक्षा विद्योपादानम, शिक्षाप्रधानं हैं, प्रतः उन्हें शाश्वतासंख्यात कहते हैं। व्रतं शिक्षाव्रतम्, देशावकाशिकादेविशिष्टश्रुतज्ञानशाश्वती जिनप्रतिमा-शाश्वत्यस्तु प्रकारिता भावनापरिणतत्वेनैव निर्वाह्यत्वात् । (सा. घ. स्वो. एव अधस्तिर्यगूज़लोकावस्थितेषु जिनभवनेषु वर्तन्त टी. ४-४)। इति । (योगशा. स्वो. विव.३-१२०, पृ. ५८५)। शिक्षा का अर्थ अभ्यास अथवा विद्या का ग्रहण है, जो जिनप्रतिमायें किसी के द्वारा निर्मित न होकर शिक्षा के लिए प्रथवा शिक्षा की प्रधानता से यक्त जो अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्वलोक में अवस्थित व्रत ग्रहण किया जाता है उसे शिक्षावत कहते हैं । जिनभवनों में विराजमान हैं वे शाश्वती जिन- शिक्षित-तथाऽऽचार्यादे: समीपे शिक्षा ग्राहिताः प्रतिमायें कहलाती हैं।
शिक्षिताः । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ६, १६, पृ. शासनदेवता-या पाति शासनं जैन सद्यः प्रत्यूह- १४५)। नाशिनी। साभिप्रेतसमृद्धयर्थं भूयाच्छासनदेवता ॥ जिन्हें प्राचार्य प्रादि के समीप में शिक्षा ग्रहण (पाचारदि. पृ. ४४ उद्.)।
कराई गई है वे शिक्षित कहलाते हैं। जो जैन शासन की रक्षा करती है तथा विघ्न- शिखाच्छेदी-संसाराग्निशिखाच्छेदो येन ज्ञानाबाधा को दूर करती है वह शासनदेवता प्रभीष्ट सिना कृतः। तं शिखाच्छेदिनं प्राहुन तु मुण्डिसमस्तसमृद्धि के लिए होवे।
कम् ॥ (उपासका. ८७५)। शास्त्र-१. प्राप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्ट विरोधकम् । जिसने ज्ञानरूप तलवार के द्वारा संसाररूप अग्नि तत्त्वोपदेशकृत्सावं शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ (रत्नक. की शिखा (ज्वाला) को नष्ट कर दिया है वह &; न्यायाव. ६) । २. पूर्वापरविरोधादिदूरं हिंसाद्य- वस्तुतः शिखाछेदी कहलाता है, शिर की शिखा पासनम् । प्रमाणद्वयसंवादि शास्त्रं सर्वज्ञभाषितम् ॥ को मुंडा कर मुंडितमस्तक हुए व्यक्ति को यथार्थ. (पू. उपासका. ७)।
तः शिखाछेदी नहीं कहा जा सकता। १ जो प्राप्त के द्वारा कहा गया है, कूवादियों शिरःप्रकम्पितदोष-देखो शीर्षोत्कम्पितदोष । द्वारा प्रखण्डनीय है, जिसमें प्रत्यक्ष व अनुमान से १. कायोत्सर्गेण स्थितो यः शिरः प्रकम्पयति चालविरोध सम्भव नहीं है, जो वस्तुस्वरूप का यथार्थ यति तस्य शिरःप्रकम्पितदोषः। (मूला. वृ. ७, उपदेष्टा व समस्त प्राणियों के लिए हितकर होता १७२) । २. शीर्षप्रकम्पनं नाम दोष: स्यात् । किं है उसे शास्त्र कहते हैं। वह कुमार्ग से-मिथ्यात्व तत् ? शिरः प्रकम्पितम् । (अन. ध. स्वो. टी. मादि से-बचाने वाला है।
८-११८)। शास्त्रदान-लिखित्वा लेखयित्वा वा साधुभ्यो १जो कायोत्सर्ग में स्थित होकर शिर को हिलाता दीयते श्रुतम् । व्याख्यायतेऽथवा स्वेन शास्त्रदान है उसके शिरःप्रकम्पित नामक दोष होता है। तदुच्यते ॥ (पू. उपासका. ६७)।
शिलासंस्तर-विद्धत्थो य अफूडिदो णिक्कंपो स्वयं लिखकर अथवा अन्य से लिखा कर जो साधनों सव्वदो असंसत्तो। समपट्रो उज्जोवे सिलामो होदि के लिए शास्त्र दिया जाता है, अथवा जो उसका संथारो।। (भ. प्रा. ६४२)। व्याख्यान किया जाता है, उसे शास्त्रदान कहते हैं। जो जलने, कट जाने अथवा घिसे जाने से विध्वस्त शास्य-देखो शिष्य ।
(प्रासुक) हुमा हो, प्रस्फुटित-फूटा न हो व शिक्ष-देखो शैक्ष।
दरारों प्रादि से रहित हो, स्थिर हो, सब पोर शिक्षा-शिक्षा श्रुताध्ययनम् । (अन. घ. स्वो. टी. जीव जन्तुषों के संसर्ग से रहित हो, और समतल ७-९८)।
हो; ऐसा प्रकाश में अवस्थित शिलामय संस्तर श्रुत के अध्ययन का नाम शिक्षा है। प्रादि लिङ्गों (बिछौना) क्षपक के लिए योग्य माना गया है ।
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