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वैयावृत्त्य] १०३३, जैन-लक्षणावली
विरात्रिक करने अथवा वन्दना प्रादि से जो उपकार किया दुःखे सन्निहते निरवद्येन विधिना तदपहरणं बहुप्रकारं जाता है इस सबको वैयावृत्य कहा जाता है। इसके वैयावृत्त्यमिति व्याख्यायते । (त. वा. ६, २४,६) ३. अतिरिक्त मार्गश्रम से श्रान्त, चोर प्रादि से उपद्रुत, गुणन त्साधुजनानां क्षुधा-तृषा-व्याधिजनितदुःखस्य । हिंस्र पशुओं से पीड़ित, राजा के द्वारा बाधित, नदी व्यपहरणे व्यापारो वैय्यावृत्त्यं वसुद्रव्यैः ।। (ह. पु. से अवरुद्ध तथा रोग अथवा भिक्ष प्रादि से पीड़ित ३४-१४०) । ४ गुणिदुःनिपले नु निर माद्यविधाऐसे अभ्यागत साधुओं को ग्रहण कर उनका सरक्षण नतः । तस्यापहरणं प्रोक्त वैया वृत्तवानिन्दितम् । करना, यह भी यावत्य का लक्षण है। यह प्रस्य. (त. श्लो.६,२४, ११)। ५. गुणवतः साधूजनस्य न्तर तप के अन्तर्गत है। ३ गृहद्वाःो छोड़ देने संनिहिते दुःखे निरवधन विधिना तदपहरणं बहुवाले गणी तपस्वी का जो सत्यपकार की अपेक्षा प्रकारं वैयावत्यमिति । (चा. सा. प. २६) । न करके उपकार किया जाता है तथा गणानराग के १ गणवान मनि आदि के ऊपर दुःख के प्रा पड़ने वश जो उनकी प्रापत्तियों को दूर किया जाता है पर निर्दोष उपाय के द्वारा उसे दूर करना, इसे एवं पादमर्दन तथा अन्य जो कुछ भी उपकार यावृत्त्य कहते हैं। इसका निरन्तर विचार रहना, किया जाता है; इस सबको वैयावृत्त्य कहते हैं । यह यह वैयावृत्त्यभावना है। श्रावक के चार शिक्षाव्रतों में अन्तिम है। १६ जो वयावृत्त्ययोग-व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम् । प्रागमोक्त क्रियाओं के अनुष्ठान में तत्पर रहता है जेण सम्मत्त-णाण-अरहंत-बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छउसे व्यावृत्त कहा जाता है, इस व्यावृत्त का जो ल्लादिणा जीवो जुज्जइ वेज्जावच्चे सो वेज्जावच्चभाव अथवा कर्म है उसका नाम वैयावृत्त्य है। जोगो दंसणविसुज्झदादि । (धव. पु. ८, पृ. ८८) । व्याधि, परीषह और मिथ्यात्व प्रादि से ग्रसित होने जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, प्ररहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति पर उसका प्रतीकार करना तथा बाह्य द्रव्य के प्रभाव और प्रवचनवात्सल्य प्रादि के द्वारा जीव अपने को में अपने शरीर से ही उनके अनकल पाचरण वैयावृत्त्य में योजित करता है उसका नाम वैयावृत्त्यकरना, यह भी वयावृत्त्य का लक्षण है।
योग है। यह तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारणों के वैयावृत्त्य करविवेक-वैयावृत्त्य कराः स्वशिष्या. अन्तर्गत है। दयो ये ये तेषां कायेन विवेकः तैः सहासंवासः, मा वैराग्य - १. तस्य (विरागस्य) भावो वैराग्यम् । कृथा वैयावृत्त्यम् इति वचनम्, मया त्यक्ता यूय मिति (त. श्लो. ६-१२)। २. वैराग्यम् -शरीरादी वचनम् । (भ प्रा. विजयो. १६६)।
परस्मिन्निष्टवस्तुनि प्रीतिरूपो रागः, विनष्टो रागो वैयावृत्त्य करने वाले जो जो अपने शिष्य प्रादि हैं यस्यासौ विरागः, विरागस्य भावो वैराग्यं संसारउनके साथ न रहना तथा वचन से यह कहना कि शरीर-भोगेषु निर्वेदलक्षणम् । (प्रारा. सा. टी. मेरी वैयावृत्त्य मत करो, मैंने तुम सबका परि- १८)। ३. भवांग-भोगविरतिर्वैराग्यम् । (कातिके. त्याग कर दिया है। यह काशः काय से व वचन से टी.१०२) । वैयावृत्त्यकरविवेक है।
२ शरीरादि पर वस्तुओं में जो प्रीति होती है वैयावृत्त्यकारिशुद्धि ---संयतवयावृत्त्यक्रमज्ञता वैया- उसका नाम राग है, ऐसे राग से रहित हुए जीव वृत्त्यकारिशुद्धिः। (भ. प्रा. विजयो. १६६)। को विराग या विरागी कहा जाता है। विरागी की संपतों की वैद्यावृत्ति के क्रम को जानना, यह वैया- अवस्था का नाम ही वैराग्य है। वृत्त्यकारिशद्धि कहलाती है। यह शय्या-संस्तर मादि वैरात्रिक-विगता रात्रियस्मिन् काले स विरात्री पांच प्रकार की शुद्धि में अन्तिम है।
रात्रः पश्चिमभागः, द्विघटिकासहितार्धरात्रादूर्ध्ववैयावृत्त्यभावना-१. गुणवदुःखोपनिपाते निर- कालः, विरात्रिरेव वैरात्रिकः । (मूला. वृ. ५-७३)। वद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्त्वम् । (स. सि. जिस काल में रात्रि समाप्त होने को होती है ऐसे ६-३४) । २. गुणवदुःखोपनिपाते निरवद्येन रात्रि के पिछले भाग का नाम विरात्रि है। अभिविधिना तदपहरणं वैयावृत्त्यम् । गुणवतः साधुजनस्य प्राय यह है कि प्राधी रात के पश्चात दो घटिकानों
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तुम सबका पर
कर दिया है।
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