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शठवन्दन] १०५०, जैन-लक्षणावली
[शब्ददोष १ शंख के समान घुमाव वाली जिस योनि में गर्भ (शबरी) नामक दोष से मलिन होता है । २ दोनों नहीं रहता उसे शं वावर्तयोनि कहा जाता है। . हाथों को गुह्य प्रदेशों (जननेन्द्रिय) पर रखकर शठवन्दन-१. वीसंभद्राणमिणं सब्भावजडे सढं कायोत्सर्ग में स्थित होना, यह एक कायोत्सर्ग का हवइ एग्रं। कवडंति कइयवंति य सढयावि हंति शबरी नामक छठवां दोष है।। एगट्ठा ।। (प्रव. सारो. १६७)। २. विस्रम्भो शबरीदोष-देस्रो शबरबध्दोष । विश्वासः, तस्य स्थानमिदं वन्दनकम्, एतस्मिन् शबल-शबलं कळुरं चारित्रं यः क्रियाविशेषेर्भवति यथावद्दीपमाने श्रावकादयो विश्वसन्तीत्यर्थः, इत्यभि- ते शबलाः, तद्योगात् साधवोऽपि । (समवा. व. २३)। प्रायेणव सदभावजडे सदभावरहितेऽन्तर्भावशन्ये शबल नाम कर्बर-मिश्रित अनेक रंगों का है, जिन वन्दमाने शिष्ये शठमेतद् वन्दनकं भवतीति । (प्राव. विविध प्रवृत्तियों से चारित्र चित्र-विचित्र होता है हरि. व. मल. हेम. टि. पृ. ८९; प्रव. सारो. वृ. उन्हें शबल कहा जाता है तथा उनके सम्बन्ध से १६७) । ३. शठं शाठ्येन विश्रम्भार्थं वन्दनं ग्ला- वैसा आचरण करने वाले साधुनों को भी शबल नादि व्यपदेशं वा कृत्वा न सम्यग्वन्दनम् । (योग- कहा जाता है। शा. स्वो. विव. ३-१३०)।
शब्द-१. शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायति, शप्यते १ मेरे यथाविधि वन्दना करने पर श्रावक प्रादि येन, शपनमात्रं वा शब्दः । (त. वा. ५, २४, १)। मेरे ऊपर विश्वास करेंगे, इस अभिप्राय से वन्दना २. बाह्यश्रवणेन्द्रियावलम्बितो भावेन्द्रियपरिच्छेद्यो को विश्वास का स्थान मानकर छल से जो वन्दना ध्वनिः शब्दः । (पंचा. का. प्रमत. वृ. ७९)। की जाती है उसे शठवन्दन कहा जाता है । कपट, ३. शब्द: श्रवणेन्द्रियगोचरो भावः । (सिद्धिवि. व. कंतव प्रौर शठता ये समानार्थक हैं।
१,२, पृ. ५९४)। ४. शब्द्यते अभिधीयते मनेनेति शतपृथक्त्व-तिस्सदप्पहुडि जाव णवसदाणि त्ति शब्दों ध्वनिः श्रोत्रेन्द्रियविषयः । (स्थानां. प्रभय. एदे सम्ववियप्पा सदपुत्तमिदि वुच्चंति । (धव. पु. वृ. ४७); शब्द्यते अभिधीयतेऽभिधेयमनेनेति शब्दो ७, पृ. १५७)।
वाचको ध्वनिः । xxx शब्दनमभिधानम्, तीन सौ से लेकर नौ सौ तक जितने विकल्प हैं वे शब्द्यते वा यः, शब्द्यते वा येन वस्तु स शब्दः, सब शतपृथक्त्व के अन्तर्गत हैं।
तदभिधेयविमर्शपरो नयोऽपि शब्द एवेति । (स्थानां. शत्रु-नास्त्यविवेकात्परः प्राणिनां शत्रुः । (नीति. अभय. व. १८६) । ५. शब्दो वर्ण-पद-वाक्यात्मको वा. १०-४५, पृ. १२१)।
ध्वनिः । (लघीय. अभय. वृ. १६, पृ. ६६)। प्राणियों का शत्रु विवेकशून्यता है, उसको छोड़ १ जो अर्थ को बुलवाता है-जतलाता है, जिसके अन्य कोई शत्रु नहीं है।
द्वारा पदार्थ का ज्ञान कराया जाता है उसे अथवा शनैश्चरसंवत्सर-शनैश्चरनिष्पादितः संवत्सरः उच्चारण मात्र को शब्द कहते हैं। इस प्रकार शनैश्चरसंवत्सरः शनैश्चरसम्भव: । (सूर्यप्र. सू. यहां कर्ता, करण और भाव की अपेक्षा शब्द मलय. वृ. १०-२०, पृ. १५४)।
का निरुक्त्यर्थ प्रगट किया गया है। २ जो बाह्य शनैश्चर गृह से सम्भव वर्ष का नाम शनैश्चर. श्रोत्रेन्द्रिय के प्राश्रित है तथा भाव श्रोत्रेन्द्रिय के संवत्सर है।
द्वारा जाना जाता है उसका नाम शब्द है। ४ श्रोशबरबधुदोष-१. शबरबधूरिव जंघाभ्यां जघने बेन्द्रिय को विषयभूत ध्वनि को शब्द कहा जाता है। निपीड्य कायोत्सर्गेण तिष्ठति तस्य शबरबधूदोषः। शब्ददोष-१. शब्दं ब्रुवाणो यो वन्दनादिकं करोति (मूला. व. ७-१७१)। २. हस्तो गुह्य देशे स्थाप- मौनं परित्यज्य तस्य शब्ददोषः। (मूला. वृ.७, यित्वा शबर्या इव स्थानं शबरीदोषः । (योगशा. १०८) । २. शब्दो जल्पक्रिया xxx। (मन, स्वो. विव. ३-१२६)। ३. गुह्यं कराभ्यामावृत्य घ. ८-१०६)। शबरीवच्छवर्यपि । (अन. घ. ८-११४)। १ जो मौन को छोड़कर शब्द करता हुमा बन्दना १ भील स्त्री के समान जंघाओं से जघनों को पीड़ित प्रादि करता है उसके शब्ददोष होता है। यह एक कर कायोत्सर्ग में स्थित होने पर वह शबरबधू वन्दना का दोष है।
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