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शकटीकर्म] १०४८, जैन-लक्षणावली
[शङ्का ३३८; योगशा. ३-१०४)।
योग्य नहीं है, अपवित्र होकर भी वह गुण गाड़ी और उसके अंगभत चाक प्रादि का बनाना, रूप रत्नों के संचित करने में उपकारी है। यह उन्हें चलाना तथा बेचना इसे शकटजीविका कहा विचार करके विषयसुख में प्रासक्त न होकर उसका जाता है। वह हिंसा जनक होने से हेय मानी उपयोग दास के समान करना-जिस प्रकार केवल
कार्य के सम्पादनार्थ सेवक को भोजन अथवा वेतन ज्ञकटीकर्म-वेखो शकटजीविका । साडीकम्मं ग्रादि दिया जाता है उसी प्रकार रत्नत्रयादि गुणों सागडीयत्तणेण जीवति, तस्थ अंध-वधमाई दोषाः। के प्राप्त करने के लिए यथायोग्य उस शरीर का (प्राव. प्र. ६, पृ. ८२६)।
पोषण करना- तथा शक्ति के अनुरूप प्रागमानुसार गाड़ी चलाकर उसके द्वारा प्राजीविका के करने को कायक्लेश करना, यह शक्तितस्तप कहलाता है। प्राकटीकर्म कहा जाता है।
शक्तितस्त्याग-१. परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्याशंकटोलिकादोष--पार्णी मीलयित्वाऽग्रचरणौ वि- गः । ग्राहारो दत्तः पात्राय तस्मिन्नहनि तत्प्रीतिहेतुस्तार्य, अङ्गुष्ठौं वा मीलयित्वा पार्णी विस्तार्य भवति, अभयदानमुपपादितमेकभवव्यसननोदनस्थानं शकटोद्धिकादोषः । (योगशा. ३-१३०)। करम्, सम्यग्ज्ञानदानं पुन: अनेक भवशतसहस्रदुःखोदोनों एडियों को मिलाकर व प्रागे के पांवों को तारकारणम्, अत एतत्त्रिविधं यथाविधि प्रतिपाद्यफैला करके स्थित होना अथवा दोनों अंगठों को मानं त्यागव्यपदेशभाग्भवति । (त. वा. . मिलाकर व एड़ियों को फैला करके स्थित होना ६) । २. शक्तितस्त्याग उद्गीत: प्रीत्या स्वस्यातियह एक शकटोद्धिका नामक कायोत्सर्ग का दोष है। सर्जनम् । नात्मपीडाकरं नापि सम्पद्यनतिसर्जनम् ॥ शक्ति-अन्तरायविनाशाद वीर्यलब्धिः शक्तिः । (त. श्लो. ६, २४, ८)। ३. पाहारो दत्तः पात्राय (युक्त्यनु. टी. ४); शक्तिः सामर्थ्य परमागमान्विता तस्मिन्नहनि तत्प्रीतिहेतुर्भवति, प्रभयदानमुपपादितयुक्तिः । (युक्त्य न. टी. ५)।
मेकभवव्यसननोदनकरम, सम्यग्ज्ञानदानं पुनरनेकअन्तराय के विनाश से जो वीर्य की प्राप्ति होती भवशतसहस्रदुःखोत्तारण कारणम्, अतस्त्रिविधाहाहै उसे शक्ति कहते हैं। परमागम से युक्त युक्तिरूप राभय-ज्ञानदानभेदेन यथाविधि प्रतिपाद्यमानं त्यागः। सामर्थ्य को भी प्रसंगानुसार शक्ति कहा गया है। (चा. सा. पृ. २५) । शक्तिस्तप-१. अनिगहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि. १पात्रके लिए दिया गया प्राहार उसी दिन में उसकी कायक्लेशस्तपः। शरीरमिदं दुःखकारणमनित्यम- प्रीति का कारण होता है, अभयदान एक भव को शुचि, नास्य यथेष्टभोगविधिना परिपोषो युक्तः, प्रापत्तियों को दूर करने वाला है; सम्यग्ज्ञान का अशुच्यपीदं गुण-रत्नसंचयोपकारीति विचिन्त्य विनि- दान हजारों भवों के दुःखों से मुक्त कराने वाला वृत्तविषयसुखामिष्वङ्गस्य स्वकार्य प्रत्येतद् मृतक- है। इस कारण विधिपूर्वक इस तीन प्रकार के दान मिव नियुञानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधिकाय- को देना, इसे शक्तितस्त्याग कहा जाता है। क्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते। (त. वा. ६, शकुनि-शकुनि: उत्कटवेदोदयः सप्तधातुक्षयेऽपि २४, ७) । २. अनिगूहितवीर्यस्य सम्यग्मार्गाविरो- यस्य कामोद्गमो न क्षीयते । (प्राचा. दि. पृ. ७४)। घतः । कायक्लेशः समाख्यातं विशुद्ध शक्तितस्तपः ।। तीव्र वेद के उदयवश जिसके काम का प्राविर्भाव (त. श्लो. ६, २४, ६)। ३. शरीरमिदं दुःख- सात धातुमों के क्षय में भी क्षीण नहीं होता है उसे कारणमनित्यमशुचि, नास्य यथेष्टं भोगविधिना शकुनि कहा जाता है। परिपोषो युक्तः, अशुच्यपीदं गुण-रत्नसंचयोपकारीति शक्तुक्षेत्र-शक्तुक्षेत्रं यत्र यवा बाहुल्येन समुत्पद्यविचिन्त्य विनिवृत्तविषयसुखाभिष्वगस्य कार्य प्रत्येतद् न्ते सक्तवः संततमुपभुज्यन्ते । (प्राय. स. वि. ४, भृतक मिवनियुञ्जानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधकाय- १३९)। क्लेशानुष्ठानं तपः । (चा. सा. पृ. २५)। जिस स्थान में जो बहुतायत से होते हैं तथा वे उप१ यह शरीर दुःख का कारण, अनित्य और अपवित्र भोग में ही पाते हैं उसे शक्तक्षेत्र कहते हैं। है। प्रभीष्ट भोगों के द्वारा इसको पुष्ट करना शङ्का-१. अधिगतजीवाजीवादितत्त्वस्यापि भग
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