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व्यजनावग्रहावरणीय १०३७, जैन-लक्षणावलो
. [व्यन्तर सम्बन्ध को प्राप्त होने वाले शब्दादि का जो ज्ञान लाख सावद्यभेदों के अन्तर्गत है जिनके अभाव में होता है वह व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। अथवा शील-गुण परिपूर्ण होते हैं। 'व्यज्यन्ते इति व्यञ्जनानि' इस निरुक्ति के अन. व्यतिरेक-१. व्यतिरेकः सन्तानान्तरगतो विसदसार व्यञ्जन शब्द से शब्दादिरूप से परिणत होकर शपरिणामः । (लघीय. स्वो. विव. ६७) । २. व्यउपकरण इन्द्रिय को प्राप्त द्रव्य अभिप्रेत है; तिरेकः तदभावे (कारणाभावे) अभावः (कार्यस्य) । उनका जो अव्यक्त ग्रहण होता है उसका नाम सिद्धिवि. वृ. ३-१०, पृ. १६३)। ३. व्यतिरेको व्यञ्जनावग्रह है।
भवेद् भावो वस्त्वन्तरगतोऽसमः । गो-महिष्यादि. व्यञ्जनावग्रहावरणीय-व्यञ्जनावग्रहस्य यदा- भावो यो यथा तद्व्यतिरेचकः ।। (प्राचा. सा. ४, वारकं तद् व्यञ्जनावग्रहावरणीयम्। (धव. पु. ६-७)। ४. व्यतिरेकः एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभावि१३, पृ. २२०)।
पर्यायः । (लघीय. अभय. वृ. ६-१७)। ५. तत्र जो कर्म व्यञ्जनावग्रह को प्राच्छादित करता है व्यतिरेक: स्यात्परम्पराभावलक्षणेन यथा। अंशउसे व्यञ्जनावग्रहावरणीय कहते हैं।
विभाग: पृथगिति सदृशांशानां सतामेव ॥ (पंचाव्यतिक्रम- देखो व्यतिक्रमण । १. प्राहाकम्म- ध्या १-१७२)। निमंतणपडिसुण माण अतिक्कमो होइ। पय भेयाइ १ भिन्न सन्तान-जैसे गाय-भैंस प्रादि में-जो व इक्कम xxx ॥ (व्यव. भा. पी. ४३, पृ. विसदृशतारूप अवस्था है उसे व्यतिरेक पर्याय कहा १७)। २. उपयोगपरिसमाप्त्यन्तरं च यदाधा- जाता है। २ कारण के प्रभाव में जो कार्य का भी कर्म ग्रहणाय पदभेदं करोति, xxx माग प्रभाव होता है, यह व्यतिरेक कहलाता है। वह गच्छति, गृहं प्रविशति, आधाकर्मग्रहणाय पात्रं अन्वय के साथ कार्यकारणभाव का गमक होता है। प्रसारयति, न चाद्यापि प्रतिगलाति, एष सर्वोऽपि व्यतिरेक दृष्टान्त--१. साध्याभावे साधनाभावो व्यापारो व्यतिक्रमः । (व्यव. भा. पी. मलय. व. यत्र कथ्यते स व्यतिरेक दृष्टान्तः । (परीक्षा. ३, ४३, पृ. १७-१८); विशेषेण पदभेदकारणतोऽति- ४४) । २. व्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनप्रदेशो व्यतिरेकक्रमो व्यतिक्रमः । (व्यव. भा. मलय. व. २५१, दृष्टान्तः। (न्यायदी. पृ.७८)। पृ.८७)।
१ साध्य के प्रभाव में जहां साधन का प्रभात्र कहा २ किसी गृहस्थ के द्वारा सम्बन्धविशेष से अथवा जन ते चरेिक दृष्टान्त कहते है। गुणानुराग के वश आहार ग्रहण के लिए निमंत्रित व्यन्तर - १. विविध देशान्तराणि येषां निवासास्ते करने पर उसके वाक्य को सुनकर तदनकल प्रवृत्ति व्यन्तराः इत्यन्वर्थसामान्य संज्ञा । (स. सि. ४-११)। करता हुमा साधु यदि अतिक्रम दोष के पश्चात २. विविघदेशान्तरनिवासित्वाद् व्यन्तराः। विवि. उपयोग के समाप्त होने पर प्राधाकर्म से दूषित देशान्तराणि येषां निवासास्ते व्यन्तरा इत्यन्वर्थाः। भोजन को ग्रहण करने के लिए पांवों को उठाता (न. वा. ४, ११, १)। ३. व्यन्तरनामकर्मो ये घरता है, मार्ग में चलता है, घर में प्रवेश करता सति विविधान्त रनिवासित्वाद् व्यन्तराः ॥ (त. लो. है और पात्र को निकालता है, किन्तु अभी ग्रहण ४-११) । ४. तथा विविधमन्तरं वनान्तरादिकनहीं कर रहा है यह उसका सब व्यापार व्यति- माश्रय रूपं येषां ते व्यन्तराः, अथवा विगतमन्तरं क्रमस्वरूप है । ग्रहण करने पर तिचार और खाने मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तरा:। (बृहत्सं. मलय. व. पर नाचार होत' है। .
२); वनानामन्तराणि वनान्तराणि, तेषु भवा व्यतिक्रमण -- १ व्यतिक्रमण स तस्य संयतसमूहं वानमन्तरा व्यन्तराः, "पृषोदरादयः" इति वनान्तरत्यक्त्वा विषयोपकरणार्जनम् । (मूला. व. ११, शब्दयोरपान्तराले मकार-वर्णागमः। (बहत्सं. मलय. ११) । २. xxx व्यतिक्रमो यो विषयाभि- वृ.५८)। ५. विविधदेशान्तराणि निवासाः येषां लाषः । (भावप्रा. टी. ११८ उद्.)।
ते व्यन्तराः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-११) । १ संयत समूह को छोड़कर विषय के उपकरणों के १ जिन देवों के निवास विविध-अनेक प्रकार केजुटाने पर व्यतिक्रमण होता है। यह उन चौरासी देश हैं उन्हें व्यन्तर कहा जाता है। ४ अनेक प्रकार
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