Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 375
________________ व्यवहारवात्सल्य ] राग सर्वज्ञ प्रणीत षद्रव्यादिसम्यक् श्रद्धान- ज्ञान - व्रता द्यनुष्ठानरूपो व्यवहारमोक्षमार्गः, XX X अथवा साधको व्यवहारमोक्षमार्ग: । (परमा वृ. २- १४) । १ धर्माधर्मादि द्रव्यों के श्रद्धानस्वरूप सम्यक्त्व, अंग-पूर्वी के अधिगमस्वरूप ज्ञान और तप में प्रवृत्ति रूप चारित्र को व्यवहारमोक्षमार्ग माना गया है । व्यवहारवात्सल्य -- बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयाघारे चतुविधसंघे वत्से धेनुवत् पञ्चेन्द्रियविषयनिमित्त पुत्र- कलत्र - सुवर्णादिस्नेहवद्वा यदकृत्रिम स्नेहकरणं तद् व्यवहारेण वात्सल्यं भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. ४१) । जिस प्रकार बछड़े से गाय स्वाभाविक स्नेह को करती है, अथवा पांचों इन्द्रियविषयों के निमित्त प्राणी पुत्र-स्त्री श्रादि से तथा धन-सम्पत्ति श्रादि से स्नेह करता है, उसी प्रकार रत्नत्रय के प्राधारभूत चार प्रकार के संघ से जो स्वाभाविक स्नेह प्रगट किया जाता है, वह व्यवहारवात्सल्य कहलाता है । व्यवहारसत्य - १. ववहारेण य सच्च रज्झदि कूरो जहा लोए ॥ (मूला. ५- ११४ ) । २. वर्तमानकाले स परिणामो यद्यपि नास्ति तथाप्यतीतानागतपरिणामान् प्रति इदमेव द्रव्यमिति कृत्वा प्रवृत्तानि वचांसि श्रोदनं पच कटं कुवित्येवमादीनि व्यवहारसत्यम् । (भ. श्री. विजयो. ११९३ ) । ३. X X X चोदनं व्यवहृतौ XXX ॥ ( श्रन. घ. ४-४७) । ४. सिद्धेऽप्योदने लोकव्यवहारानुसार णात् तन्दुलान् पचेति वक्तव्ये प्रोदनं पचेति वचनं व्यवहारसत्यम् । ( छन. ध. स्वो टी. ४-४७) । ५. व्यवहारसत्यं भाविभूतपरिणामापेक्षया प्रवृत्तम् । यथासिद्धेऽप्योदने लोकव्यवहारानुसरणात् तन्दुलान् पचेति वाच्ये श्रोदनं पचेत्यादिवचनम् । (भ. श्री. मूला. १९९३) । ६. व्यवहारं नैगमादिनयप्राधान्यमाश्रित्य प्रवृत्तं यद्वचः तद् व्यवहारसत्यम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २२३) । १ 'भात को पकाओ' इत्यादि वचनप्रयोग को लोक में हारसत्य माना जाता है। भात को नहीं पकाया जाता, किन्तु चावलों के पकाने पर भात बनता है। इस प्रकार से यद्यपि उपर्युक्त वाक्य सत्य है, फिर भी लोकव्यवहार में उसे असत्य नहीं माना जाता । १०४२, जैन-लक्षणावली व्यवहारसम्यक्त्व - १. घम्मादीसद्दहणं सम्मत जिणवरेहि पण्णत्तं । (पंचा. का. १६० ) । Jain Education International [ व्यवहारहिंसा २. धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वम् XXX | ( तत्वानु. ३० ) । ३. तत्र धर्मादीनां द्रव्य पदार्थं विकल्पवतां तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभावं भावान्तरं श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १६० ) । ४. एवमुक्तप्रकारेण मूढत्रय मदाष्टक षडनायतनशंकाद्यष्टमलरहितं शुद्धजीवादि तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् । (बृ. द्रव्यसं. ४१ ) । ५. मिथ्यात्वाद्विपरीतं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं निश्चयसम्यक्त्वकारणभूतं व्यवहारसम्यक्त्वम् । (पंचा. का. जय. वृ. ४३ [६], पृ. ८७) । १ द्रव्य और पदार्थ के भेदभूत धर्म व धर्म प्रादि द्रव्मों के श्रद्धान का नाम व्यवहारसम्यक्त्व है । व्यबहारसम्यग्ज्ञान - १ x × × णाणमंगपुव्वगदं । (पंचा. का. १६० ) । २. तत्त्वार्थश्रद्धाननिर्वृत्तो सत्यामङ्ग-पूर्वगतार्थ परिच्छित्तिर्ज्ञानम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १६० ) । ३. XXX ज्ञानमधिगमस्तेषाम् । ( तत्त्वानु. ३० ) । ४ XXX बोधन सज्ज्ञानम् × × × । ( अन. ध. १-९३) । १ अंग प्रर पूर्व श्रुतविषयक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं, यह व्यवहारसम्यग्ज्ञान का लक्षण है व्यवहारसम्यग्दर्शन - देखो व्यवहारसम्यक्त्व । १. श्रद्धानं पुरुषादितत्त्वविषयं सद्दर्शनं × × × (अन. घ. १-९३) । २. व्यवहाराच्च सम्यक्त्वं ज्ञातव्यं लक्षणाद्यथा । जीवादिसप्ततत्त्वानां श्रद्धानं गाढमव्ययम् || (लाटीसं. ३-१२ ) । १ पुरुषादि ( जीवादि) तत्त्वों के विषय में जो श्रद्धान होता है उसे सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व कहा जाता है। व्यवहारसम्यग्दर्शनाराधना मूढत्रयादिपंचविशतिमलपरिहारेण हेयस्य त्यागेनोपादेयस्योपादानेन जीवादितत्त्वश्रद्धानं विधीयते यत्र सा व्यवहारसम्यग्दर्शनाराधना | ( श्रारा. सा. टी. ४) । तीन मूढता प्रादि पच्चीस दोषों को दूर करके हेय के परित्याग और उपादेय के ग्रहण से जिसमें जीवादि तत्वों का श्रद्धान किया जाता हैं उसे व्यवहारसम्यग्दर्शनाराधना कहते हैं । व्यवहारहिंसा - रागाद्युत्पत्ते बं हिरङ्गनिमित्तभूतः परजीवधातो व्यवहार हिंसा ( प्रव. सा. जय. वृ. ३-१७) । रागादि की उत्पत्ति में बाह्य निमित्तभत जो अन्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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