Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 369
________________ व्यञ्जनशुद्धि २०३६, जैन-लक्षणावली [व्यञ्जनावह से जो प्रात्मप्रदेशों का अवस्थान है उसे व्यञ्जन- समयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तीभवन्ति, पुनः पुनरवग्रहे पर्याय कहा जाता है। यह प्रान्त्य अवस्था को लक्ष्य सति व्यक्तीभवन्ति, अतो व्यक्तग्रहणात्प्राग्व्यञ्जनामें रखकर कहा गया है। ४ जो पर्याय स्थूल, वग्रहः । (स. सि. १-१८)। २. व्यञ्जनमव्यक्तं कालान्तर में रहने वाली, सामान्यज्ञान की विषयभत शब्दादिजातम, तस्यावग्रहो भवति । (त. वा. १-१८); और चक्षु से ग्रहण करने योग्य हो वह व्यञ्जनपर्याय अव्यक्तग्रहण व्यञ्जनावग्रहः । कथम् ? अभिनवकहलाती है। शराववत् । यथा सूक्ष्मजलकणद्वि-त्रिसिक्तः शरावोव्यञ्जनशद्धि-१. तत्र व्यञ्जनशुद्धिर्नाम यथा ऽभिनवो नार्दीभवति, स एव पुनः पुनः सिच्यमानः गणधरादिभिः द्वात्रिंशद्दोषवजितानि सूत्राणि कृतानि शनै स्तिम्यति तथा प्रात्मनः शब्दादीनां व्यक्त ग्रहणात् तेषां तथैव पाठः । (भ. प्रा. विजयो. ११३)। प्राक् व्यञ्जनावग्रहः। (त. वा. १, १८, २) । २. व्यञ्जनशुद्धिर्यथोक्तसूत्रपठनम् । (भ. प्रा. मूला. ३. प्राप्तार्थ ग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः । (धव. पु. १, पृ. ११३)। ३५५; पु. ६, पृ. १५६; पु. १३, पृ. २२०); १ जिस प्रकार से घिरादिकों के द्वारा बत्तीस पत्तत्थगहणं बंजणावग्गहो । (धव. पु. ६. पृ.१६) । दोषों से रहित सत्रों की रचना की गई है उनका ४. अध्यक्तमत्र शब्दादिजातं व्यञ्जन मिष्यते । उसी प्रकार से जो पाठ किया जाता है, इसका तस्यावग्रह एवेति नियमः Xxx। (त. श्लो.. नाम व्यञ्जनशुद्धि है। १, १८, २) । ५. फासित्ता जं गहणं रस-फरसणव्य ञ्जनसंक्रान्ति-१. एकं श्रुतवचनमुपादाय सद्द-गंधविसएहिं । बंजण बग्गहणाणं णिहिटठं तं वचनान्तरमालम्बते, तदपि विहायान्यदिति व्यञ्जन- बियाणाहिं ॥ (जं. दी. प. १३-६७)। ६. व्यजसंक्रान्तिः । (स. सि. ९-४४; त. वा. ६-४४)। नावग्रहश्चक्षुर्मनसोस्त्यिवग्रहः । विषयाक्षसन्निपा२. एवं [एक] श्रुतवचनमवलम्ब्य श्रुतवचनान्तरा- तानन्तराद्यग्रहः स्मृतः ॥ प्राप्ताप्राप्तार्थ बोधोऽवग्रहो लम्बनं व्यजनसंक्रान्तिः । (त. श्लो. ६-४४) । ३. व्यञ्जनार्थयोः। रस-रूप-परिज्ञाने रसना-नेत्रयोज्ञेया ध्यजनसंक्रान्ति व्यंजनाद् व्यञ्जने स्थितिः । यथा ।। (प्राचा. सा. ४, १०-११)। ७. व्यञ्जनेन (ज्ञाना. १६, पृ. ४३३)। ४. एक वचनं त्यक्त्वा सम्बन्धेनावग्रहणं सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थवचनान्तरमवलम्बते, तदपि त्यक्त्वाऽन्यद् वचनमब- स्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यजनावग्रहः । अथवा व्यलम्बते इति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । (भावप्रा. टी. ज्यन्ते इति व्यञ्जनानि Xxx व्यञ्जनानां ७८) । ५. श्रुतज्ञानशब्दमवलम्ब्य अन्यं श्रुतज्ञान- शब्दादिरूपतया परिणतानां द्रयाणामपकरण न्द्रियशब्दमवलम्बते तमपि परिहुत्यापरं श्रुतज्ञानवचन- सम्प्राप्तानामवग्रहः अव्यक्त रूपः परिच्छेदो व्यजमाश्रयति, एव पूनः पुनस्त्यजन्नाश्रयमाणन व्यञ्ज- नावग्रहः । अथवा व्यज्यतेऽनेनाथः प्रदीपेनेव घट: नसंक्रान्ति लभते । (त. बृत्ति श्रुत. ६-४४) । इति पञ्जनम् उपकरणेन्द्रियम्, ले न स्वसम्बद्ध- . . १ एक श्रुतवचन को ग्रहण करके दूसरे का पाल- स्यार्थस्य शब्दादेरवग्रहणम् अव्यक्तरूप: परिच्छेदो। बन लेना, पश्चात उसे भी छोड़कर अन्य धुतवचन व्यञ्जनावग्रहः । (प्राव. नि. मलय. व. ३, पृ. . का मालम्बन लेना, इसका नाम व्यञ्जनसंक्रान्ति है। २३)। ८. इन्द्रियः प्राप्तार्थविशेषग्रहणं व्यञ्जनाव्य ञ्जनाचार-देखो व्यञ्जन । व्यञ्जनं वर्ण. वग्रहः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र.३-७) । पद-वाक्यशुद्धिः, व्याकरणोपदेशेन वा तथा पाठादि- श्रोत्र प्रादि इन्द्रियों में शब्दादिरूप से परिगत wञ्जनाचारः । (मला. वृ. ५-७२)। पुद्गल दो तीन प्रादि समयों में ग्रहण करते हुए भी व्यञ्जन से अभिप्राय वर्ण, पद और वाक्य की शुद्धि व्यक्त नहीं होते। किन्तु वे बार-बार ग्रहण होने पर का है, अथवा व्याकरण के उपदेशानुसार विधि- व्यक्त होते हैं, अतः व्यक्त ग्रहण के पहिले जो उनका पूर्वक पाठ प्रादि करना, इसका नाम व्यञ्जनाचार अवग्रह होता है उसे व्यञ्जनावग्रह कहते हैं। है। यह पाठ प्रकार के ज्ञानाचार के अन्तर्गत है। ३ प्राप्त अर्थ का जो ग्रहण होता है उसे व्यञ्जनाव्यञ्जनावग्रह-देखो व्यञ्जना । १. एवं श्रोत्रा- वग्रह कहा जाता है। ७ व्यंजन का अर्थ इन्द्रिय दिष्विन्द्रियेषु शब्दादिपरिणता: पुद्गला द्वि-त्र्यादिषु और पदार्थ का सम्बन्ध है, इस सम्बन्ध के द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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