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विष्णु] १०१६, जैन-लक्षणावली
[विस्तारानन्तं सुत्ताणं गहणं । एदे अोसहित्तं पत्ता जेसि ते विट्ठो- विसंवादन-१. विसंवादनमन्यथाप्रवर्तनम् । x सहिपत्ता । (धव. पु. ६, पृ. ६७)।
Xx परगतं विसंवादनम । सम्यगभ्युदय-निश्रेय. विष्ठा शब्द सूत्र में देशामर्शक है, अतः उससे मूत्र सार्थासु क्रियासु प्रवर्तमानमन्यं तद्विपरीतकायप्रादि अन्य सूत्रों को भी ग्रहण करना चाहिए। वाङ्मनोभिविसंवादयति मैवं कार्षीरेवं कविति । अभिप्राय यह है कि जिन ऋषियों का मल-मूत्र भी (स. सि. ६-२२)। २. विसंवादनमन्यथाप्रवर्तनम् । औषधिस्वरूप परिणत हो जाता है उन्हें विष्ठौषधि अन्येन प्रकारेण प्रवर्तनं प्रतिपादनं विसंवादनमिति ऋद्धिप्राप्त कहा जाता है।
विज्ञायते। xxx सम्यगभ्यूदय-निश्रेयसार्थास विष्ण-.---१. उपात्तदेह व्याप्नोतीति विष्णः । (धव. क्रियासु प्रवर्तमानमन्यं काय-वाङमनोभिविसंवादपु. १, पृ. ११६); स्वशरीराशेषावयवान् वेष्टीति यति मैवं कार्षीरेवं कुर्विति कुटिलतया प्रवर्तन विविष्णुः । (धव. पु. ६, पृ. २२१)। २. सकल- संवादनम् । (त. वा. ६, २२, २-३) । ३. अन्यथा विमलकेवलज्ञानेन येन कारणेन समस्तं लोकालोकं स्थितेषु पदार्थेषु परेषामन्यथाकथनं विसंवादनम् । जानाति व्याप्नोति तेन कारणेन विष्णुर्भण्यते । (बृ. (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२)। द्रव्यसं टी.१४)। ३ व्यवहारेण स्वोपात्तदेहम्, समु-१स्वर्ग-मोक्षादि की साधक समीचीन क्रियानों में
द्घातेन सर्वलोकम्, निश्चयेन ज्ञानेन सर्वं वेवेष्टीति प्रवर्तमान किसी दूसरे को मन, वचन व काय की विष्णुः । (गो. जी. जी. प्र. ३६६) । ४. विश्वं हि कुटिलता से 'ऐसा मत करो, ऐसा करो' इस प्रकार दव्य-पर्यायं विश्वं त्रैलोक्यगोचरम् । व्याप्तं ज्ञान- से ठगने को विसंवादन कहा जाता है। त्विषा येन स विष्णुापको जगत् ॥ (प्राप्तस्व. विस्तारदष्टि-देखो विस्ताररुचि । ३१) । ५. विष्णानेन सर्वार्थविस्तृतत्वात कथंचन ।
विस्ताररुचि--१. विस्ताररुचि:-अंग-पूर्वविषयजी(लाटीसं. ४-१३२; पंचाध्या. २-६१०)।
वाद्यर्थविस्तारप्रमाण - नयादिनिरूपणोपलब्धश्रद्धाना १ जो प्राप्त शरीर को व्याप्त करता है अथवा
विस्ताररुचयः। (त. वा. ३. ३६, २) । २.xx अपने शरीर के समस्त अवयवों को बार-बार वेष्टित
X यान्या तस्या विस्तारजा तु सा ।। प्रमाण-नयकरता है उसका नाम विष्णु है। यह जीव का एक
निक्षेपायुपायरतिविस्तृतैः । अवगाह्य परिज्ञानात्तत्त्वपर्यायवाची शब्द है। ४ जो ज्ञानरूप प्रकाश के
स्याङ्गादिभाषितम् ।। (म. पु. ७४, ४४५-४६) । द्वारा तीनों लोक सम्बन्धी समस्त द्रव्यों व उनकी पर्यायों को व्याप्त करता है उसे विष्णु कहा जाता
३. यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टिम् । (प्रात्मान. १४) । ४. द्वादशा:
ङ्गचतुर्दशपूर्व प्रकीर्ण विस्तीर्णश्रतार्थ - समर्थन प्रस्तारो विसम्भोगिक-विसम्भोगो दानादिभिरसंव्यवहारः, स यस्यास्ति स विसम्भोगिकः। (स्थानां. अभय. व.
विस्तारः । (उपासका. पृ. ११४; अन. ध. स्वो.
टी. २-६२)। ५. द्वादशाङ्गश्रवणेन यज्जायते तद्वि१७३) ।
स्तारसम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते । (दर्शनप्रा. टी. १२) । दानादि के द्वारा संव्यवहार के प्रभाव को विसंभोग कहते हैं। इस प्रकार के विसम्भोग से जो सहित
२ प्रमाण, नय और निक्षेप प्रादि विस्तृत उपायों होता है उसे विसम्भोगिक कहा जाता है।
द्वारा अंग-पूर्वादि श्रुत में प्ररूपित तत्त्वों को जानविसर्प-बादरशरीरसधितिष्ठतो जले तैलवत् वि
कर जो रुचि या श्रद्धा होती है उसे विस्ताररुचि, सर्पणं विसर्पः । (त. वा. ५, १६, १)।
विस्तारवृष्टि प्रथवा विस्तारसम्यक्त्व भी कहते हैं। जैसे जल के ऊपर तेल फैल जाता है वैसे ही बादर विस्तारानन्त-जं तं वित्थाराणंतं तं पदरागारेण शरीर पर अधिष्ठित हए जीव के जो प्रात्मप्रदेशों मागासं पेक्खमाणे अंताभावादो भवदि । (घव. प. का फैलाव होता है उसे विसर्प कहते हैं।
३, पृ. १६)। विसंवाद-अन्यथा प्रतिपत्तिः पुनविसंवादः । प्रतराकार से प्राकाश के देखने पर उसका अन्त (सिद्धिवि. वृ. २-६, पृ. १३७)।
सम्भव नहीं है। इससे उसे विस्तारानन्त कहा विपरीत प्रतीति का नाम विसंवाद है।
जाता है।
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