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वीतरागचारित्र] १०२१, जन-लक्षणावली
[वीर्य वीतरागचारित्र-तत्-(अपध्यान.) प्रभृतिसमस्त. विक्रान्तौ वीरयति स्म कषायोपसर्ग-परीषहेन्द्रियाविकल्पजालरहितं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसहजानन्दक- दिशत्रुगणजयं प्रति विक्रामति स्मेति वीरः । 'प्रचः' लक्षणसुख रसास्वादसहितं यत्तद्वीतरागचारित्रं भवति। इत्यच प्रत्ययः । अथवा 'ईर गति-प्रेरणयोः' विशेषण (बृ. द्रव्यसं. टी. २२, पृ. ५८)।
ईरयति गमयति स्फोटयति यद्वा प्रापयति शिवमिति अपध्यान प्रादि समस्त विकल्पों से रहित तथा स्व. वीरः । यदि वा ईर् गतौ' इत्यादिको धातुः विशेसंवेदन से उत्पन्न स्वाभाविक सुख के रसास्वाद से षेण अपुनर्भावेन ईर्ते स्म याति स्मेति वीरः अपश्चिमसहित जो चारित्र होता है उसे वीतरागचारित्र तीर्थकरो वर्द्धमानस्वामीत्यर्थः । (बृहत्सं. मलय. कहते हैं।
व.१)। ५. वीरो विक्रान्तः, वीरयते शरयते वीतरागसम्यक्त्व-१. प्रात्मविशुद्धि मात्रमित. विक्रामति कर्मारातीन् विजयत इति वीरः। (नि. रत् । सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् प्रात्यन्तिकेऽपगमे सा. वृ. १)। सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद्वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्य. १ 'मा' का अर्थ लक्ष्मी है, जो विशिष्ट मा-मुक्ति ते । अत्र पूर्व (सरागसम्यक्त्वं) साधनं भवति उत्तर और स्वर्गादि के अभ्यदय रूप लक्षमी-को 'राति' साधनं साध्य च । (त. वा. १, २, ३१) । २. राग- अर्थात देता है उसका नाम वीर है। २ विशेषेण द्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागसम्यग्दर्श- ईरयति इति वीरः'। इस निरुक्ति के प्रनसार जो नम । (भ.प्रा. विजयो. ५१) । ३. वीतरागसम्य- विशेष रूप से मोक्ष के प्रति स्वयं जाता है तथा क्वं निजशद्वात्मानभतिलक्षणं वीतरागचारित्रा- सरों को पाता है तथा मोका मि
दूसरों को पहुंचाता है, अथवा कर्मों का निराकरण विनाभूतम, तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति । (परमा.
करता है, अथवा रागादि शत्रुनों पर विजय प्राप्त टी. २-१७)।
करता है उसे वीर कहा जाता है। यह अन्तिम १सात कर्मप्रकृतियों का सर्वथा क्षय हो जाने पर जो तीर्थकर वर्धमान जिनेन्द्र का एक सार्थक नाम है। प्रात्मा में निर्मलता होती है उसे वीतरागसम्यक्त्व
वीरासन-१. वीरासणं जंघे विप्रकृष्टदेशे कृत्वाकहा जाता है।
सनम् । (भ. प्रा. विजयो. २२५) । २. वीरासनं वोतहेदु-वीतं हि नाम विधिमुखेन साध्यसाधनम् ।
ऊरुद्वयोपरि पादद्वयविन्यासः । (भ. प्रा. मूला. (न्यायवि. विव. २-१७३, पृ २०८)।
२२५) । ३. XXX न्यस्तावूर्वोः वीरासनं क्रमो। विषिमुख से जो हेतु साध्य को सिद्ध किया करता
(प्रन.ध. ८-८३)। है वह सांख्य मतानुसार वीतहेतु कहलाता है ।
१ जांघों को दूर देश में करके बैठना, इसे वीरासन वीतावीत -प्रतिषेधपरमुभयपरं च वीतावीतम् ।
वहते हैं। २ दोनों जंघानों के ऊपर दोनों पांवों के (न्यायवि. विव. २-१७३, पृ. २०८) ।
रखने पर वीरासन होता है। जो हेतु प्रतिषेध को तथा उभय (विधिःप्रतिषेध) को भी सिद्ध करता है उसे सांख्यमतानुसार वीतावीत
वार्य-१. द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम् । (स. हेतु कहा जाता है।
fr. ६-६) । २. द्रव्यस्यात्मसामर्थ्य वीर्यम् । वोर-१. विशिष्टां मां लक्ष्मी मक्तिलक्षणामभ्यू. द्रव्यस्य शक्तिविशेषः सामर्थ्य वीर्यमिति निश्चीयते । दयलक्षणां वा रातीति वीरः । (यक्त्यन. टी.१)। (त. वा. ६, ६, ६)। ३. वीर्य वीर्यान्तरायक्षयोपन २.विशेषेणेरयति मोक्ष प्रति गच्छति गमयति वा शम-क्षयजं खल्बात्मपरिणाम:। (प्राव. नि. रि. प्राणिनः प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति वीरयति वृ. १५१३, पृ. ७८३) । ४. प्रात्मनो निर्विकारस्य वा रागादिशत्रन प्रति पराक्रमयतीति दीरः। कृतकृत्यत्वधीश्च या । उत्साहो वीर्यमिति तत्कीर्तितं
, (स्थानां. अभय. वृ. ५१); विदारयति यत्कर्म
मनिपंगवः ।। (मोक्षपं. ४७)। ५. द्रव्यस्य पुरुषातपसा च विराजते। तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर देनिजशक्तिविशेषो वीर्यम् ॥ (त. वृत्ति श्रुत. इति स्मृतः ।। (स्थानां. अभय. व. प. ३६ उव.)। ६-६)। ३. विशेषेण ईरयति क्षिपति कर्माणीति वीरः। १ द्रव्य की अपनी शक्तिविशेष को वीर्य कहते हैं। (योगशा. स्वो. विव. १-१)। ४. 'शूर वीर ३ वीर्यान्तराय के क्षयोपशम अथवा क्षय से जो
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