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विशेषज्ञ ]
१-५२; प्रा. मी. वसु. वृ. ७५ )। ६. उक्तं चअसमानस्तु विशेषो वस्त्वेकमुभयरूपं तु । ( श्राव नि. मलय. वृ. ७५५, पृ. ३७३ ) ।
१ एक पदार्थ में जो दूसरे पदार्थ से भिन्नता होती है उसे विशेष कहा जाता है । ३ श्रादेश, भेव और विशेष ये समानार्थक शब्द हैं। आदेश नाम मार्गणा का है । ५ विसदृश परिणाम को विशेष कहते हैं । विशेषज्ञ - तथा वस्त्ववस्तुनोः कृत्याकृत्ययोः स्वपरयोविशेषमन्तरं जानाति निश्चिनोतीति विशेषज्ञः । अथवा विशेषात्मन एव गुण-दोषाधिरोहलक्षणं जानातीति विशेषज्ञः । (योगशा. स्वो विव. १-५५, पृ. १५८ ) ।
१०१८, जैन - लक्षणावली
वस्तु प्रवस्तु, कृत्य - प्रकृत्य और श्रात्म-पर के विशेष ( अन्तर) को जो जानता है उसे विशेषज्ञ कहा जाता है । अथवा जो अपने ही गुण-दोषों के श्रधिरोहस्वरूप विशेष को जानता है वह विशेषज्ञ कहलाता है । विशोधि-विशेषेण शोधिविशोधिः । एतदुक्तं भवति शिष्येणालोचितेऽपराधे सति तद्योग्यं यत्प्रायचित्तप्रदानं सा विशोधिरभिधीयते । ( श्रोधनि. वृ. २) ।
शिष्य के द्वारा अपराध की श्रालोचना कर लेने पर उसके योग्य जो प्रायश्चित्त दिया जाता है उसे विशोधि कहते हैं । विश्वस्तमन्त्रभेद - देखो मन्त्रभेद । तथा विश्वस्ता विश्वासमुपगता ये मित्र- कलत्रादयस्तेषां मन्त्रो मन्त्रणम्, तस्य भेद: प्रकाशनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-६१ ) ।
विश्वास को प्राप्त जो मित्र व स्त्री आदि हैं उनके मंत्र को – गोपनीय अभिप्राय को प्रगट कर देना, इसका नाम विश्वस्तमंत्रभेद है । यह सत्याणुव्रत का एक प्रतिचार है ।
विष - १. विषं स्थावरजङ्गमं सकृत्रिमभेदभिन्नम् । (मूला वृ. ६-३३ ) । २. विषं श्रृंगिकादि । (योगशा. स्वो विव. ३-११०) ३. तत्र परस्परसंयोगजनितमा रणशक्तिविशिष्ट तेल- कर्पूरादिद्रव्यं वि. षम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३०३) । २ शंखिया श्रादि को प्राणघातक होने से विष कहा जाता है । ३ जिस तेल व कपूर आदि द्रव्य में परस्पर के संयोग से प्राणघातक शक्ति उत्पन्न हुई
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[विष्ठौषधिप्राप्त
है वह विष कहलाता है।
विषय - १. विषयस्तावत् द्रव्य-पर्यायात्मार्थः । ( न्यायकु. स्व. वि. १ - ५, पृ. ११५ ) । २. रसादयोऽर्थाः विषयः । ( धव. पु. १३, पृ. २१६ ) । ३. इन्द्रियमनस्तर्पणो भावो विषयः । ( नीतिवा. ६–१६) । ४. तथा च शुक्रः - मनसश्चेन्द्रियाणां च सन्तोषो येन जायते । स भावो विषयः प्रोक्तः प्राणिनां सौख्यदायकः ।। ( नीतिवा. टी. ६-१६) । १ द्रव्य - पर्यायरूप अर्थ को विषय कहा जाता है । २ जिह्वा श्रादि इन्द्रियों से जिन रस आदि को ग्रहण किया जाता है वे उनके विषय माने गए हैं। ३ इन्द्रियों व मन के सन्तुष्ट करने वाले पदार्थ विषय कहलाते हैं । विषयानन्द रौद्रध्यान
स्वकीय विषयसुरक्षणे दक्षः स्वकीययुवती - द्विपद-चतुष्पद स्वाद्य खाद्याशनपान सुस्वरश्रवण सुगन्धगन्धग्रहण - धन-धान्य-गृहवस्त्राभरणादीनां रक्षणे रक्षायां यत्नकरणे दक्षः निपुणः, इदं विषयानन्दाख्यं रौद्रध्यानम् । ( कार्तिके. टी. ४७६) ।
अपने विषयों के संरक्षण में तत्पर रहते हुए युवती स्त्री, दास-दासी आदि द्विपद, गाय-भैंस श्रादि चतुष्पद तथा स्वाद्य व खाद्य भोजन-पान श्रादि सभी इन्द्रिय-विषयों के संरक्षण को जो निरन्तर चिन्ता रहती है; यह विषयानन्द रौद्रध्यान कहलाता है ।
विषयी - १. विषयी द्रव्य-भावेन्द्रियम् । ( लघीय. स्वो विव. ५ ) । २. पडपीन्द्रियाणि विषयिणः । ( धव. पु. १३, पु. २१६) ।
१ रूप रसादि स्वरूप विषयों की ग्राहक होने से द्रव्य व भाव इन्द्रियों कों विषयी कहा जाता है । विषवाणिज्य १. विषास्त्र हल यन्त्रायो हरितालादि वस्तुनः । विक्रयो जीवितघ्नस्य विषवाणिज्यमुच्यते । (योगशा. ३- ११०; त्रि. पु. च. ६, ३, ३४४) । २. विषवाणिज्यं जीवघ्नवस्तुविक्रयः । (सा. घ. स्वो टी. ५-२२ ) ।
१ विष, अस्त्र, हल, यंत्र, लोहमय कुदाली आदि श्री हरिताल (विष) श्रादि जो भी वस्तु प्राणियों की घातक हो उसके बेचने का नाम विषवाणिज्य है । विष्ठौषधिप्राप्त देखो विडौषधि व विप्रौषधि ऋद्धि । विट्ठसद्दो जेण देसामासिओ तेण मुत्त-विट्ठा
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