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विपुलमति ]
वृ. १२ - १८७) । ८. विपुला विशेषग्राहिणी मतिविपुलमतिः -- घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति । ( स्थानां श्रभय. वृ. ७१ ) । C. विपुलमतयो मनोविशेषग्राहिमनः पर्ययज्ञानिनः । उक्तं च विउलं वत्थु विसेसण माणं तग्गाहिनी
विला । चितियमणुसरइ घडं पसंगउ पज्जवसएहि । ( प्रश्नव्या. अभय वृ. पृ. ३४३) । १०. विपुला बहुविधविशेषणोपेतमन्यमान वस्तुग्रा हित्वेन मनोमात्रप्राहिणी मतिः मन:पर्ययज्ञानम् । ( श्रौपपा. १५, पृ. २८) । ११. विपुलं बहुविशेषोपेतं वस्तु मन्यते गृह्णाति इति विपुलमतिः, XXX यदि
विपुला पर्यायशतोपेत चिन्तनीय घटादिवस्तुविशेषग्राहिणी मतिर्मननं यत् तद्विपुलमतिः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७०, पृ. ७९) । १२. प्रगुणाप्रगुण निर्वर्तितमनोवाक्कायगतसूक्ष्मेतरार्थावलम्बनो विपुलमतिमन:पर्ययः । ( लघीय. अभय वृ. ६१, पृ. ८२ ) । १३. विपुला काय वाङ्मनः कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञानान्निर्वर्तिता अनिर्वर्तिता कुटिला च मतिर्यस्य स विपुलमतिः स चासो मनपर्ययश्च विपुलमतिमनः पर्ययः । (गो. जी. जी. प्र. ४३९ ) । १४. वाक्काय-मनः कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानादनिवर्तिता न पश्चाद्वालिता न व्याघोटिता तत्रैव स्थिरीकृता मतिर्विपुला प्रतिपद्यते । कुटिला च मतिर्विपुला कथ्यते । XXX विपुला मतियस्य मन:पर्ययस्य स विपुलमतिः । (त. वृत्ति श्रुत. १-२३) ।
१ जो ऋजु व प्रनृजु मनोगत, ऋजु व श्रनृजु वचनगत तथा ऋजु व श्रनृजु कायगत को जानता है उसे विपुलमति मन:पर्यय कहते है । श्रभिप्राय यह है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान मन से - मतिज्ञान से, मन अथवा मतिज्ञान के विषय को जानकर दूसरों की संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवन-मरण, लाभ
लाभ, सुख-दुख व नगर आदि के विनाश तथा अतिवृष्टि- अनावृष्टि श्रादि को जानता है । २ जो मन, वचन व काय से किये गये श्रनिवर्तित व कुटिल मनोगत पदार्थ को जानता है उसे विपुलमति मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। ८ इसने घट के सम्बन्ध में विचार किया है। वह सुवर्णनिर्मित; पाटलीपुत्र में बना हुम्रा, वर्तमानकालीन व महान
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१०१०, जैन-लक्षणावली
[विप्पाणसमरण
है; इत्यादि विशेषताओं के निर्णय के कारणभूत मन द्रव्य के ज्ञान को विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान कहा जाता है
विप्पाणसमरण - दुर्भिक्षे कान्तारे दुरुत्तरे पूर्वशत्रुभये दुष्टनृपभये स्तेनभये तिर्यगुपसर्गे एकाकिनः सोढुमशक्ये ब्रह्मव्रतनाशादिचारित्रदूषणे च जाते संविग्नः पापभीरुः कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोढुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासत्युपाये सावद्यकरणभीरुः विराधमरणभीरुश्च एतस्मिन् कारणे जाते कालेऽमुष्मिन् किं भवेत्कुशलमिति गणयतो यद्युपसर्गभयत्रासितः संयमाद् भ्रश्यामि ततः संयम भ्रष्टो दर्शनादपि न वेदनामसंक्लिष्टः सोढुमुत्सहेत, ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चितमतिनिर्मायश्चरण-दर्शन विशुद्धः धृतिमान् ज्ञानसहायोऽनिदानः श्रर्हदन्तिके आलोचनामासाद्य कृतशुद्धिः सुलेश्य: प्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विप्पाणसं मरणमुच्यते । (भ. प्रा. विजयो. २५, भावप्रा. टी. ३२ ) । जिसे अकेला सहन न कर सके ऐसे दुरुत्तर दुर्भिक्ष, जंगल, पूर्व शत्रु के भय, दुष्ट राजा के भय, चोर के भय अथवा तिथंचकृत उपद्रव के उपस्थित होने पर या ब्रह्मव्रत के नाश श्रादि चरित्र सम्बन्धी दूषण के होने पर संवेग को प्राप्त हुआ पापभीरु साधु कर्मों के उदय को उपस्थित जानकर उसके सहन करने में असमर्थ होता हुआ उससे निस्तार का कोई उपाय न होने पर पापाचरण करने से भयभीत होता है व चारित्र की विराधना करना नहीं चाहता । तब वह विचार करता है कि ऐसे कारण के उपस्थित होने पर इस काल में क्या कल्याण हो सकता है ? यदि मैं उपसर्ग से पीड़ित होकर संयम से भ्रष्ट हो जाऊंगा तो दर्शन से भी भ्रष्ट हो जाने पर संक्लेश से रहित होकर उसे सहन न कर सकूंगा । तब वैसी अवस्था में मैं रत्नत्रय के प्राराधन से भ्रष्ट हो जाऊंगा । प्रकार के विचार से वह निश्चल होता हुआ दर्शन और चारित्र से शुद्ध रहकर अरहन्त के पास में आलोचना करके निर्मल परिणामों से अन्न-पान का निरोध करता है । इस अवस्था में उसका जो मरण होता है उसे विप्पाणसमरण कहा जाता है । विप्रौषधि - देखो विडौषधि ऋद्धि । मूत्रस्य पुरी - षस्य वा श्रवयवो विट् उच्यते, अन्येत्वाहुः विडिति
उक्त
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