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बसति-संस्तरविवेक]
१८७, जैन-लक्षणावली [वस्तुश्रुतज्ञानावरणीय १ मंत्र-तंत्रादि के उपदेश द्वारा दाता को अपने १ जो मुख्य व गौण की अपेक्षा रखकर अनेकात्मक अधीन करके भोजन के प्राप्त करने पर वह वश्य- स्वरूप को न छोड़ते हुए एक है तथा एकरूपता को कर्म नामक उत्पादनदोष से दषित होता है। न छोड़ते हए अनेक भी है उसे ही वस्तु कहा ना बसति-संस्तरविवेक-वसति-संस्तरयोविवेको नाम सकता है। २ जो प्रत्यक्ष प्रादि प्रमाणों की विषय कायेन वसतावनासनं प्रागध्युषितायां संस्तरे वा हो तथा परस्पर विरुद्ध दिखने वाले-जैसे एकप्राक्तने प्रशयनम् अनासनम । वाचा त्यजामि वसति- अनेक व नित्य-अनित्य प्रादि-धर्मों से अधिष्ठित हो संस्तरमिति वचनम् । (भ. प्रा. विजयो. १६६)। वह वस्तु कहलाती है। ३ जिसमें गुण व पर्याय रहा जिस वसति में,पहिले रह रहा था उसमें न रहना, करते हैं उसे वस्तु कहते हैं। इसी प्रकार पूर्व के विछौने पर न सोना-बैठना; यह है गादिधर्मकथा-१. सयलंगेक्कंगेकाय से वसति-संस्तरविवेक कहलाता है तथा में कंगहियार सवित्थरं ससंखेवं । वण्णणसत्थं थयवसति और संस्तर का परित्याग करता हूं, इस थइ-धम्मकहा होइ नियमेण ॥ (गो. क. ८८) । प्रकार वचन से कहना, इसे वचन से वसति-संस्तर- २. एकांगाधिकारार्थसविस्तर-ससंक्षेपविषयसंक्षेपविविवेक कहा जाता है। यह पांच प्रकार के विवेक में षयशास्त्रं च वस्त्वनयोगादिधर्मकथा च भवति निय. दूसरा है।
मेन । (गो. क. जी. प्र. ८८)। बसति-संस्तरशुद्धि-उद्गमोत्पादनषणादोषरहि
१ जिस शास्त्र में एक अंग के अधिकार सम्बन्धी तता 'ममेदम्' इत्यपरिग्राह्यता च वसति-संस्तरयोः
प्रर्थ का विस्तार अथवा संक्षेप से वर्णन किया जाता
। शुद्धिः । (भ. मा. विजयो. १६६) ।
है उसका नाम वस्तु-अनुयोगाविरूप धर्मकथा है। उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषों से रहितता तथा 'ममेदम्-यह मेरा है' इस प्रकार से उन्हें प्राह्य न
वस्तुत्व-सायान्य-विशेषात्मकत्वं वस्तुत्वलक्षणम् । मानना, इसे वसति-संस्तरशुद्धि कहा जाता है।
(अष्टश. १६)।
वस्तु में जो सामान्यरूपता और विशेषरूपता होती वह पांच प्रकार की शुद्धि में दूसरी है। वसा-वसा मांसास्थिगतस्निग्धरसः । (मूला. व.
है, यही वस्तु का वस्तुत्व-उसका लक्षण है। १२-११)।
वस्तुश्रुतज्ञान-१. पुणो एत्थ एगक्खरे वडिदे मांस और हड्डियों में जो चिक्कण रस रहता है वत्थुसुदणाणं होदि । वत्थु त्ति किं वृत्तं होदि ? उसका नाम वसा है । यह शरीर को सात धातुओं पुव्वर जसका नाम दमा है। यह हार को मात धातों पुव्वसुदणाणस्स जे अहियारा तेसि पूध पध वत्थ इदि में से एक है जिसे चर्बी कहा जाता है।
सण्णा । (धव. पु. १३, पृ. २७०) । २. वस्तु नियवसा-वसयोपलिप्तं वसाम । (सूत्रकृ. नि. शी.
तार्थाधिकारप्रतिवद्धो ग्रन्थविशेषोऽध्ययनवदिति । वृ. १८५)।
(समवा. अभय. व. १४७) । जो वसा (चौं) से उपलिप्त हो उसे वसा कहा। १ प्राभृतसमास श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की जाता है । यह नोप्रागम-द्रव्य-माई के भेदों में है। वृद्धि के होने पर वस्तु नामक श्रुतज्ञान होता है। वस्तु-१. नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजह- उत्पादादि पूर्वो में से प्रत्येक में जो नियत संख्या में च्च नाना। अंगागिभावात्तव वस्त यत्तत क्रमेण अधिकार है वे पृथक्-पृथक वस्तुश्रुतज्ञान कहलाते हैं। वाग्वाच्यमनन्तरूपम् ॥ (युक्त्यनु. ५०) । २. प्रत्य- २ नियत अधिकार से सम्बद्ध प्रकरणविशेष-जैसे क्षादिप्रमाणविषयभूतं विरुद्धधर्माध्यासलक्षणं वाऽवि- अध्ययन प्रादि-का नाम वस्तु है। ये वस्तु अधिरुद्धं वस्तु । (प्रष्टश. ११०)। ३. वसन्त्यस्मिन् कार नियत संख्या में उत्पाद प्रादि पूर्वो में पाये गुण-पर्याया इति वस्तु चेतनादि। (ध्यानश. हरि. जाते हैं। जैसे-उत्पादपूर्व में १० व अग्रायणी पूर्व व. ३)। ४. यदर्थक्रियाकारि तद्वस्तु । (घव. पु. १. में १४, इत्यादि। पृ. १७४) । ५. स्यात् स्व-पररूपादिना सदसदाद्य- वस्तुश्रुतज्ञानावरणीय-वत्थुसुदणाणस्स जमावानेकान्तात्मकं वस्तु । (न्यायकु. १-४) । ६. सामा- रयं कम्मं तं वत्थुनावरणीयं । धव. पु. १३, पृ. न्य-विशेषात्मकं वस्तु । (स्वयम्भू. टी. ४४)। २७६) ।
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