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वानप्रस्थ] ६६४, जैन-लक्षणावलो
[वायुजोव अंगों वाली सभा में विपरीत पक्ष के निराकरणपूर्वक पेट प्रादि प्रमाण स्वरूप से युक्त तथा हाथ-पांव आदि अपने पक्ष को प्रतिष्ठित करने के लिए जो अवश्य हीन होते हैं उसे वामनसंस्थान कहते हैं। बोलता है उसका नाम वादी है।
वायसदोष--१. यः कायोत्सर्गस्थो वायस इव वानप्रस्थ-१. वानप्रस्था अपरिगृहीतजिनरूपा काक इव पावं पश्यति तस्य वायसदोषः । (मला. वस्त्रखण्डधारिणो निरतिशयतपःसमुद्यताः (सा. घ. वृ.७-१७१) । २. वायसस्येवेतस्ततो नयनगोलक'तपस्युद्यताः') भवन्ति । (चा. सा. पू. २२, सा. घ. भ्रमणं दिगवेक्षणं वा वायसदोषः। (योगशा. स्वो. स्वो. टी. ७-२०)। २. ग्राम्यमर्थ बहिश्चान्तर्यः विव.३-१३०)। ३. वायसो वायसस्येव तिर्यगीपरित्यज्य संयमी । वानप्रस्थः स विज्ञेयो न वनस्थः क्षा xxx। (अन. घ. ८-११६)। कुटुम्बवान् ।। (उपासका. ८७४)। ३. यः खलु १ जो कायोत्सर्ग में स्थित होकर कौवे के समान यथाविधि जानपदमाहारं संसारव्यवहार च परित्य- पाश्वंभाग को देखा करता है उसके वायस नामक ज्य सकलत्रोऽकलत्रो वा वने प्रतिष्ठते स वानप्रस्थः । कायोत्सर्ग का दोष होता है। २ जो कायोत्सर्ग के (नीतिवा. ५-२२, पृ. ५०)।
अनुष्ठान में कौवे के समान प्रांखों की पुतलियों को १ जो जिनलिंग को धारण न करके वस्त्रखण्ड इधर-उधर चलाता है अथवा दिशाओं का अवलोकन (लंगोट) को धारण करते हुए निरतिशय तप के किया करता है वह कायोत्सर्ग के वायस नामक धाचरण में उद्यत रहते हैं वे वानप्रस्थ कहलाते हैं। दोष का भाजन होता है। २ जो बाह्य और प्रम्यन्तर से ग्राम्य अर्थ को--- वायु-वायुकायिकजीवसन्मूर्छनोचितो वायुः वायुगाली प्रादि निन्द्य व्यवहार को छोड़कर संयम मात्र वायुरुच्यते । (त, वृत्ति श्रुत. २-१३) । का परिपालन करता है उसे वानप्रस्थ समझना वायकायिक जीवों की उत्पत्ति के योग्य जो हो उसे चाहिए । ३ जो विधिपूर्वक जनपदके भोजन को और वायु कहा जाता है, अथवा वायु मात्र को वाय संसार के (लौकिक) व्यवहार को छोड़कर पत्नी जानना चाहिए। सहित अथवा उसके विना भी वन में रहता है उसे वायुकाय - वायुकायिकजीवपरिहृतः सदा विलोवानप्रस्थ कहा जाता है।
डितो वायुर्वायुकायः कथ्यते। (त. वृत्ति श्रुत. २, वामनसंस्थान-१. सर्वांगोपांगह्रस्वव्यवस्थावि. १३)। शेषकारणं वामनसंस्थाननाम । (त. वा. ८, ११, वायुकायिक जीव के द्वारा छोड़े गये सदा विलोडित ८)। २. वामनस्य शरीरं वामनशरीरम्, वामन- वायु को वायुकाय कहा जाता है। शरीरस्य संस्थान मिव संस्थानं यस्य तद्वामन- वायुकायिक-वायुः कायत्वेन गृहीतो येन सः शरीरसंस्थानम् । जस्स कम्मस्स उदएण साहाणं वायुकायिकः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-१३) । रहस्सत्तं कायस्य दीहत्तं च होदि तं वामणसरीर- जिस जीव ने वायु को शरीर के रूप में प्रहण कर संठाणं होदि । (धव. पु. ६, पृ. ७१-७२); वामन- लिया है उसे वायुकायिक कहा जाता है । शरीरस्य संस्थानं वामनशरीरसंस्थानम् । ह्रस्वशाखं वायुचारण- पवनेष्वनेक दिग्मुखोन्मूखेषु प्रतिलोवामनशरीरम् । तस्य कारणकर्मणोऽप्येषैव संज्ञा। मानुलोमवतिषु तत्प्रदेशावलीमुपादाय गतिमस्खलित(धव. पु. १३, पृ. ३६८-६९) । ३. वामनसंस्थानं चरणविन्यासामास्कन्दन्तो वायुणारणाः। (योगशा. शरीरमध्यावयवपरमाणुबहुत्वं हस्त-पादानां च ह्रस्व- स्वो. विव. १-६, पृ. ४२)। त्वम् । (मूला. वृ. १२-४६) । ४. यत्र पुनरुर. जो साधु अनेक दिशानों के उन्मुख होकर विपरीतव उदरादि प्रमाणलक्षणोपेतं हस्त-पादादिकं हीनं तद्वा- अनुकूल चलने वाली वायु को प्रदेशपंक्ति का प्राश्रय मनसंस्थानम् ॥ (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६८ पृ. लेकर अस्खलित रूप से पांवों को धरते उठाते हैं वे ४१२)।
वायुचारण ऋद्धि के धारक होते हैं। १ जो नामकर्म समस्त अंगों व उपांगों को ह्रस्व वायुजीव-वायं कायत्वेन गृहीतुं प्रस्थितो जीवो अवस्थाविशेष (लघुता) का कारण हो उसे वामन- वायुर्जीव उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-१३)। संस्थान नामकर्म कहते हैं। ४ जिसमें छाती पोर मो जीव वायु को शरीररूप से ग्रहण करने के घिए
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