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विचिकित्साविरह |
६६, जैन - लक्षणावली
[विजातिद्रव्य उपचरितप्रस.
निष्फल दोनों प्रकार की देखी जाती हैं' इस प्रकार का जो बुद्धिभ्रम होता है उसे विचिकित्सा कहा जाता है । अथवा विद्वज्जुगुप्सा का नाम विचिकित्सा हैविद्वान् से अभिप्राय उन साधुनों का है जो संसार के स्वभाव को जानकर समस्त परिग्रह का परि त्याग कर चुके हैं। उनके प्रति शरीर की मलिनता श्रादि को देखकर घृणा का भाव होना, यह उक्त विचिकित्सा का लक्षण है । ५ रत्नत्रय के माहात्म्य को न जानकर उसके विषय में रुचि न रखते हुए जो स्वभावतः अपवित्र, परन्तु उक्त रत्नत्रयस्वरूप धर्म के कारणभूत शरीर प्रादि के विषय में कोषादि के वश ग्लानि की जाती है, इसे विचिकित्सा कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाला उसका एक प्रतिचार है । विचिकित्साविरह - देखो निर्विचिकित्सा । शरी
आदि के द्वारा की जाने वाली क्रियायें सफल श्रोर विजातिगुणप्रसद्भूतव्यवहारनय--१ विजातीयगुणे विजातीयगुणारोपणाऽसद् भूतव्यवहारःमुत्तं इह मइणाणं मुत्तिमदव्वेण जण्णियं जह्मा ! जइ हु मुत्तं गाणं ता कह खलियं हि मुत्तेण ।। (ल. न. च. ५४ ) । २. विजातिगुणे विजातिगुणावरोपणोऽसद्भूतव्यवहारः- मुत्तं इह महणाणं मुत्तिमदव्वेण जणि जम्हा । जइ ण हु मृत्तं णाणं तो कि खलिश्रो हु मुत्तेण ॥ ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. २२६) ।
शुचित्व [व] भावमवगम्य शुचीति मिथ्यासंकल्पापनयोऽथ वाऽर्हत्प्रवचने इदमयुक्तं घोरं कष्टं न चेदिदं सर्वमुपपन्नमित्यशुभभावनानिरासो विचिकित्साविरहः । (चा. सा. पृ. ३) । शरीर आदि की पवित्रता को जानकर 'यह पवित्र है' इस प्रकार की मिथ्या कल्पना को दूर करना, इसका नाम निर्विचिकित्साविरह है । अथवा, श्रार्हत मत में कायोत्सर्गादि के रूप में जो भयानक कष्ट का विधान किया गया है यह अनुचित है, यदि यह न होता तो सब संगत था। इस प्रकार की भावना को दूर करना, इसे विचिकित्साविरह जानना चाहिए ।
विचित्त, विचित्र ध्यान - विचित्रं नानाप्रकारं यद् ध्यानम् । अथवा विगतं चित्तं चित्तोद्भवशुभाशुभ विकल्पजालं यत्र तद्विचित्तं ध्यानम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४८ ) । 'विचित्तझाणप्प सिद्धीए' इस गाथांश में उपयुक्त 'विचित्त' शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैंविचित्र और विचित्त । इनमें से टीकाकार ब्रह्मदेव ने प्रथमतः विचित्र का अर्थ नाना प्रकार करके तत्पश्चात् 'विचित्त' को ग्रहण करते हुए यह कहा है कि जिस ध्यान में चित्त के शुभ-अशुभ विकल्प विगत हैं- नष्ट हो चुके है उसे विचित्त ध्यान कहा जाता है ।
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१ विजातीय गुण में विजातीय गुण का श्रारोप करके कथन करना, यह विजातिगुण श्रसद्भूतव्यवहारनय का लक्षण है । जैसे- श्रात्मा के श्रमूर्तिक मतिज्ञान गुण में मूर्तिक कर्मपुद्गल से बद्ध होने के कारण कथंचित् मूर्ति प्रात्मा के उस मतिज्ञान को मूर्तिक कहना |
विजातिद्रव्यप्रसदभूतव्यवहारनय- १. विजा
तीयद्रव्ये विजातीयद्रव्यारोपणोऽसद्भूतव्यवहारःएइंदियादिदेहा णिच्चत्ता जे वि पोग्गले काये । ते जो भइ जीवो वहारो सो विजातीनो ॥ (ल. नयच. ५३ ) २. विजातीयद्रव्ये विजातीय द्रव्यावरोपणा प्रसद्भूतव्यवहारः-- एइंदियाइदेहा णिव्वत्ता जे विप्रोग्गले काये । ते जो भणेइ जीवा ववहारो सो विजाईश्री ॥ ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. २२५ ) ।
१ विजातीय द्रव्य में विजातीय द्रव्य का श्रारोपण करके जो कथन किया जाता है उसे विजातिद्रव्य असद्भूतव्यवहारनय कहते हैं। जैसे- विजातीय ( अचेतन) पुद्गल से निर्मित एकेन्द्रिय श्रादि के शरीर को जीव कहना ।
विजातिद्रव्यउपचरित असदभूतव्यवहारनय -- १. विजातीयद्रव्ये विजातीयद्रव्यारोपण उपचरितासद्भूतव्यवहारः - श्राहरणहेमरयणं वत्थादीया ममत्ति जंपतो । उवयारप्रसन्भूयो विजादिदव्वेसु णायव्वो । (ल. नयच. ७४) । २. प्राहरण हेमरयणं वच्छादीया ममेदि जप्यंतो । उवयरियप्रसन्भू विजाइदव्वेसु णायव्वो । द्रव्यस्व. प्र. नयच. २४५) ।
१ विजातीय द्रव्य में विजातीय द्रव्य का प्रारोपण करके जो व्यवहार हुआ करता है उसे विजातिद्रव्य उपचरित प्रसद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। जैसे-
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