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वस्तुसमासश्रुतज्ञान] १८८, जैन-लक्षणावली
{वाक्यशुद्धि जो कर्म श्रुतज्ञान को प्राच्छादित करता है उसे गया एक पात्र), चंगेर, किदय (चटाई ?), चालनो, वस्तुश्रुतज्ञानावरणीय कहते हैं ।
कंबल और वस्त्र प्रादि तैयार किये जाते हैं उन्हें वस्तुसमासश्रुतज्ञान-पुणो एदस्स (वत्थुसुदणा- वाइम द्रव्यप्रकृति कहा जाता है । णस्स) उवरि एगक्खरे वड्ढिदे वत्थुसमासो होदि। वाक्छल- अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायाद् एवमेगेगक्खरुत्तरवड्ढिकमेण वत्थुसमाससुदणाणं अर्थान्तरकल्पना वाक्छलम् [न्यायसू. १, २, १२]। गच्छदि जाव एगक्खरेणूणलोगबिंदुसारसुदणाणेत्ति। (सिद्धिवि. वृ. ५, २, पृ. ३१७) । (धव. पु. ६, पृ. २५, पु. १३, पृ. २७३)। सामान्यरूप से विवक्षित पदार्थ का कयन करने पर वस्तुश्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि के होने वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अन्य पदार्थ की कल्पना
मासश्रतज्ञान होता है । इस प्रकार करना, इसे वाकछल कहा जाता है। जैसे---'सव उत्तरोत्तर एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से एक कम्बलों वाला देवदत्त' ऐसा कहने पर वक्ता को जो अक्षर कम लोकबिन्दुसार (अन्तिम पूर्व) तक वस्तु- 'नव' शब्द से 'नवीन' अर्थ अभिप्रेत है उसको न लेकर समासश्रुतज्ञान चला जाता है।
उसके 'नो' संख्यारूप भिन्न अर्थ की कल्पना करके वस्तुसमासश्रुतज्ञानावरणीय--वत्थुसमाससुदणा- यह कहना कि उसके पास तो एक ही फम्बल है, नौ णस्स जमावारयं कम्मं तं वत्थुसमासावरणीय। कहां हैं? यह वाक्छल कहलाता है। (धव. पु. १३, पृ. २७६) ।
वाकपारुष्य-- ज्ञाति-वयोवृत्त-विद्या-विमवानुचितं जो कर्म वस्तुसमासश्रुतज्ञान को प्राच्छादित करता हि वचनं वाक्पारुष्यम् । (नीतिवा. १६-२८, पृ. है उसे वस्तुसमासश्रुतज्ञानावरणीय कहते हैं। १७६)। वह्नि (लौकान्तिकदेव)--- वह्निवदैदीप्यमानाः जो वचन जाति, पाय, चारित्र, विद्या और वैभव वह्वयः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-२५) ।
के योग्य न हो उसका नाम वाक्पारुष्य है। जो लौकान्तिक देव वह्नि (अग्नि) के समान दैदीप्य- वाक्प्रयोग-वाक्प्रयोगः शुभेतरलक्षणः। (धध. मान होते हैं वे वह्नि नाम से प्रसिद्ध हैं।
पु. ६, पृ. २१७)। वह्निमण्डल-१. स्फुलिङ्गपिङ्गलं भीममूर्ध्वग्वा- वचन का प्रयोग दो प्रकार से होता है--शुभ और
चितम । त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं तदबीज प्रशभ । इसका विवेचन सत्यप्रवाध पूर्व में किया वद्विमण्डलम ॥ (ज्ञाना. २६-२२, पृ. २८८)। जाता है। २. ऊर्ध्वज्वालाञ्चितं भीमं त्रिकोणं स्वस्तिकान्वि- वाक्य--१. पदानां परस्परापेक्षाणा निरपेक्ष. समतम् । स्फूलिङ्गपिङ्ग तबीजं ज्ञेयमाग्नेयमण्डलम ।। दायो वाक्यम् । (अष्टश. १०३; न्यायकु. ७२, पृ. (योगशा. ५-४६)।
७९७; प्राप्तमी. वसु. वृ. १०३; लघीय. अभय. १ अग्निकणों से पीत वर्ण वाला, भयानक, ऊपर वृ. ६४, पृ. ८७)। २. अर्थप्रतिपादक पदसमूहात्मक उठने वाली सैकड़ों ज्वालानों से संयुक्त, तीन कोनों वाक्य मेकतिङ्-सुबन्तं वा। (सूत्रकृ. सू. शी. स. २, के प्राकार से सहित, स्वस्तिक (एक मांगलिक चिह्न- ४, ६३, पृ. १०८)। विशेष---साथिया) चिह्न से चिह्नित प्रौर अग्नि १परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदों के निरपेक्ष समबीजाक्षर से युक्त जो मण्डल नासिका के छिद्र में दाय को वाक्य कहा जाता है। २ अर्थ के प्रतिपारहता है उसका नाम वह्निमण्डल है । इसका दक पदों के समूह को अथवा एक तिह' या 'सुप्' उल्लेख अग्निमण्डल और आग्नेयमण्डल प्रादि अन्य (व्याकरण प्रसिद्ध प्रत्ययविशेष) प्रत्ययान्त पड़ों के पर्यायनामों से भी किया जाता है । मण्डल के समूह को वाक्य कहते हैं । स्थान में पुर शब्द का भी व्यवहार हुपा है। वाक्यशुद्धि-१. वाक्य शुद्धिः पृथिवीकायिकारम्मावाइम द्रध्यकृति- वायणकिरियाणिप्फणं सुप्प- दिप्रेरणरहिताः[ता] परुष-निष्ठरादिपरपीडाकरप्रयो
या- चंगेरि-किदय-चालणि-कंवल-वस्था- मनिरुत्सुका व्रत-शील-देशनादिप्रवानफला हित-मितदिवव्वं वाइमं णाम । (धव. पु. ६, पृ. २७२)। मधुर-मनोहरा संयतस्य योग्या। (त. पा.६६, बनवेलप किया से जो सूप, पत्थिया (बांस से बनाया १६; त. श्लो. १-६) । २. वाक्य शुद्धिः पणिवी
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