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वडभा ६७६, जैन-लक्षणावली
[वध १ जिस नामकर्म के उदय से वज्र जैसी हड्डियों की गृही रुष्टो वसति मे न प्रयच्छेदिति संप्रधार्य तदनुसंधियों में से प्रत्येक के मध्य में नाराच सहित कूलकथनादुत्पादिता वणिगवदुष्टा। (भ. प्रा. मूला. भलीभांति योजित वलयबन्धन (वेष्टन का बन्धन) २३०)। रहता है उसे वज्रर्षभनाराचसंहनन कहते हैं । १ हे भगवन् ! आहार और वसति के दान से २ हड्डियों के संचय का नाम संहनन है, ऋषभ का क्या महान् पुण्य होता है, ऐसा पूछने पर प्रतिकूल अर्थ वेष्टन होता है, जिसके उदय से वज्र के समान वचन यदि कहा जाय तो उससे रुष्ट होकर गृहस्थअभेद्य हड्डियां वज्रमय वेष्टन से वेष्टित और वज्र- जन मुझे वसति नहीं देंगे, यह सोचकर यदि साधु मय नाराचों से कोलित रहा करती हैं उसे वज्र- उनके अनुकूल बोलकर वसति को प्राप्त करता है
में कहा जाता है। तो वह वणिगवा (वनीपक) नामक उत्पादनदोष से ४ जिस शरीरसंहनन में मर्कटबन्धन से बंधी हुई दूषित होती है। दो हड्डियां दोनों प्रोर पट्र के प्राकार वाली तीसरी हड्डी से वेष्टित होती हैं तथा ऊपर उन तीनों वत्से धेनुवत्संप्रकीर्तितम् । जनप्रवचने सम्यक् द्धाहड्डियों को भेदन करने वाली कीलिका नाम की ज्ञानवत्स्वपि ॥ (त. इलो. ६, २४, १६)। वज्रनामक हड्डी होती है वह वज्रर्षभनाराचसंहनन जिस प्रकार गाय बछड़े से प्यार किया करती है नामकर्म कहलाता है।
उसी प्रकार साधर्मी जन से, तथा समीचीन श्रद्धा वडभ-वडभा: संकुचितकर-चरणा: । (प्राचारदि. और ज्ञान से युक्त (सम्यग्दृष्टि व सम्यग्ज्ञानी) पृ. ७५)।
जीवों से भी जो प्यार किया जाता है उसका नाम जिनके हाथ-पांव संकुचित होते हैं उन्हें बडभ कहा वत्सलत्व है। इसे प्रवचनवत्सलत्व कहा जाता है। जाता है। ऐसे मनुष्यों का पृष्ठभाग बाहिर निकला यह तोयंकर प्रकृति को बन्धक सोलह भावनामों रहता है।
में अन्तिम है। वणिक्कर्यि- देखो वाणिज्यकर्मार्य । १. चन्द- वध- १. आयुरिन्द्रिय-बलप्राणवियोगकरणं वधः। नादिगम्ध-घृतादि रस-शाल्यादिधान्य कार्यासाद्याच्छा- (स. सि. ६-११); दण्ड-कशा-वेत्रादिभिरभिघातः दन-मुक्तादिनानाद्रव्यसंग्रहकारिणो बहुविधा वणि- प्राणिनां वधः । (स. सि. ७-२५)। २. प्रायुरिकार्याः। (त. वा. ३, ३६, २)। २. धान्य- न्द्रिय-बलप्राणवियोगकरणं वधः। भवधारणस्यायुषः कार्पास-चन्दन-सुवर्ण-रजत-मणि-माणिक्य - धतादिर- रूपादिग्रहणनिमित्तानामिन्द्रियाणां कायादिवर्गणालसांशुकादिसंग्रहकारिणो वाणिज्य कर्मावदाता वणि- म्बनबलस्योच्छ्वास-निःश्वासलक्षणस्य च प्राणस्य परवकर्मार्याः शब्द्यन्ते । (त. वत्ति श्रत. ३-३६)। स्परतो वियोगकरणं वध इत्यवधार्यते। (त. वा. ६, १ जो चन्दन प्रादि सुगन्धित द्रव्यों, घी आदि रसों, ११, ५); प्राणिपीडाहेतुर्वधः । दण्ड-कशा-वेत्रादिशाली प्रादि धान्यों (अनाजों), कपास प्रादि शरीर भिरभिघातः प्राणिनां वध इति गह्मते, न प्राणब्यके पाच्छादक द्रव्यों और मोती प्रादि अनेक द्रव्यों परोपणम् । (त. वा. ७, २५, २) । ३. वधः ताडनं का संग्रह किया करते हैं वे वणिक्कआर्य कहलाते करकशलतादिभिः। (ध्यानश. हरि. व. १६)। हैं । वे अनेक प्रकार के होते हैं।
४. xxx वधो दण्डातितारणा। (ह. पु. ५८, वणिगवावसति-देखो वनीपकवचन । १. भगवन् १६४)। ५. वधः कशादिताडनम् । (प्रोधनि. व. सर्वेषां प्राहारदानाद् वसतिदानाच्च पुण्यं किम मह- ४६)। ६. वधो यष्ट्यादिताडनम् । (समवा. दुपजायते इति पृष्टो न भवतीत्युक्ते गहिजनः अभय. वृ. २२)। ७. यष्टितजनक वेत्र दण्डादिभिः प्रतिकलवचनरुष्टो वसति न प्रयच्छेदिति एवमिति प्राणिनां ताडनं हननं वधः। (त. वृत्ति ७-२५ तदनुकूलमुक्त्वा योत्पादिता सा वणिगवा शब्देनो- कातिके. टी. ३३२) । च्यते । (भ. प्रा. विजयो. २३०)। २. भगवन् १प्रायु, इन्द्रिय और बल प्राणों के वियोग करने सर्वेषामाहारदानाद् वसतिदानाद् वा किं पुण्यं जायेत का नाम वध है। यह असातावेदनीय के बन्ध का उत नेति पृष्टो यदि न जायत इति ब्रवीमि तदेष कारण है । लकड़ी चाबुक या वेत प्रादि से ताड़ित
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