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लोकायतिक] २७५, जैन-लक्षणावली
[लोभपिण्ड अन्त में होने वाले–अनन्तर दूसरे भव में संसार जयाऽदैन्य-वैराग्यासंग-संयमाः॥ तच्चतुस्त्रि-द्विमासेषु से मुक्त होकर सिद्धि के प्राप्त करने वाले–देव सोपवासे विधीयते । जघन्यं मध्यमं ज्येष्ठं सप्रति लोकान्तिक कहलाते हैं। दोनों प्रकार से उनका क्रमणे दिने ॥(प्राचा. सा. १, ४०-४१) । ३. लोचो वह नाम सार्थक है।
द्वि-त्रि-चतुर्मासे वरो मध्योऽधमः क्रमात् । लघुलोकायतिक-ऐहिकव्यवहारप्रसाधनपर लोकाय- प्राग्भक्तिभिः कार्यः सोपवासप्रतिक्रमः ॥ (अन. ध. तिकम् । (नीतिवा. ६-३२)।
६-८६)। जो परलोक की अपेक्षा न कर केवल इस लोक १ दो, तीन अथवा चार मास में जो क्रम से उत्कृसम्बन्धी व्यवहार में-मद्य, मांस एवं स्त्री के सेव. ष्ट, मध्यम और जघन्य रूप में प्रतिक्रमण व उपनादि कार्यों में संलग्न रहते हैं उन्हें लोकायतिक वास के साथ बालों को उखाड़ा जाता है उसे लोच कहा जाता है। वे प्रायः चार्वाक मत के अनुयायी कहा जाता है। यह साधु के अट्ठाईस मूलगुणों होते हैं :
में से एक (२२वां) है। लोकोत्तरवाद (श्रुतज्ञान)-लोकोत्तरः अलोकः, लोभ-१. अनुग्रहप्रवणद्रव्याद्यभिकांक्षावेशो लोभः स उच्यते कथ्यते अनेनेति लोकोत्तरवादः। (धव. पु. क्रमिराग-कज्जल-कर्दम - हरिद्रारागसदृशश्चतुर्विधः । १३, पृ. २८८)।
(त. वा. ८, ९, ५)। २. गर्दा काङ्क्षा लोभः । जिस श्रुत में लोकोत्तर (प्रलोक) का कथन किया उक्तं च-xxx किमिराय-चक्क-तणुमल-हरिजाता है उसे लोकोत्तरवाद कहा जाता है। द्वाराएण सरिसो लोहो। णारय-तिरिक्ख-माणुसलोकोत्तरशब्दलिंगज श्रतज्ञान-असच्चकारण- देवेसप्पायनो कमसो ॥ (धव. पु. १, पृ. ३४६); विणिम्मुक्कपुरिसवयणविणिग्गयवयणकलावजणियसु. लोभो गृद्धिरित्येकोऽर्थः। (धव. पु. ६, पृ. ४१); दणाणं लोउत्तरियसद्दजं । (जयध. १, पृ. ३४१)। बाह्यार्थेषु ममेदंबुद्धिर्लोभः। (धव. पु. १२, पृ. असत्य भाषण के कारणों से रहित (विश्वस्त) २८३); बज्झत्थेसु ममेदंभावो लोभो। (धव. पु. पुरुष के मुख से निकले हुए शब्दसमूह के द्वारा जो १२, पृ. २८४) । ३. दानाहेषु स्वधनाप्रदानं परधनश्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे लोकोत्तरशब्दलिंगज ग्रहणं वा लोभः । (नीतिवा. ४-४) । ४. लोभनम् श्रुतज्ञान कहते हैं।
अभिकांक्षणं लभ्यते वा अनेनेति लोभः। (स्थाना. लोकोत्तरशचित्व-तत्रात्मनः प्रक्षालितकर्ममल- अभय. व. २४९)। ५. दानाहेषु स्वधनाप्रदानं कलंकस्य स्वात्मन्यवस्थानं लोकोत्तरं शुचित्वम् । निष्कारणं परधनग्रहणं च लोभः । (योगशा. स्वो. (त. वा. ६, ७, ६)।
विव. १-५६)। ६. परिग्रह-ग्रहातीवलालस मानसं प्रान्मा का कर्मरूप मल को धोकर अपने प्रात्मस्व- स्मृतः। लोभो लाभातिमोदात्तरक्षणार्थोपलक्षितः ।। रूप में स्थित होना, यह लोकोत्तरशचित्व (शद्धि) (प्राचा. सा. ५-१६)। ७. स्थले धनव्ययाभावो कहलाता है।
लोभः। Xxx निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरि. लोकोत्तर सामाचारकाल-लोउत्तरीयो सामाचा- त्यागलक्षणनिरजननिजपरमात्मतत्त्वपरिग्रहात् अन्यरकालो जहा वंदणकालो णियमकालो सज्झायकालो त परमाणुमात्रद्रव्यस्वीकारो लोभः । (नि. सा. व. झाणकालो इच्चेवमादि । (धव. पु. ११, पृ. ७६)। ११२)। वन्दना का काल, नियत अनुष्ठान का काल, स्वा- १ जो द्रव्य (धन) आदि अनुग्रह में तत्पर रहता है ध्याय का काल (अथवा सांध्यविधि का काल) और उसकी अभिलाषा रखने रूप अभिप्राय का नाम ध्यान का काल इत्यादि सदमष्ठान से सम्बद्ध काल लोभ है। २ बाह्य पदार्थों में जो 'यह मेरा है इस को लोकोत्तरसामाचारकाल कहा जाता है। प्रकार की बुद्धि रहा करती है उसे लोभ कहा जाता लोचकरणविधि-१. विय-तिय-चउक्कमासे लोचो है। ३ देने योग्य पात्रों के लिये अपने धन को न उक्कस्स-मज्झिम-जहण्णो । सपडिक्कमणे दिवसे देना अथवा दूसरे के धन को ग्रहण करना, इसे लोभ उववासेणेव कायव्वो ॥ (मूला. १-२६) । २. कूर्च- कहते हैं । श्मश्रुकचोल्लुञ्चो लुञ्चनं स्यादमी यतः । परीषह- लोभपिण्ड-१. तथा लोभं कांक्षा प्रदर्श्य भिक्षां
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