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मूल कर्मदोष] ६३१, जैन-लक्षणावली
[मूलप्रथमानुयोग रिक प्रादि शरीरों के संघातन-परिशाटन प्रादि रूप भवानुगतनाम-गोत्रकर्मोदयतो माषद्रव्यप्रायोग्यानि कार्य को मलकरणकृति कहा जाता है।
द्रव्याणि गृहीतानि । (व्यव. भा. मलय. वृ. I मूलकर्मदोष-देखो मूलकर्मपिण्डदोष । १. अव. १४, पृ. ६)। साणं वसियरणं संजोयणं च विप्पजुत्ताणं । भणिदं जिस जीव ने 'माष' भव को प्राप्त होकर प्रथम ही तु मूलकम्मं xxx॥ (मला. ६-४२) । २. नाम और गोत्र कर्म के उदय से माष पर्याय के योग्य मूलकर्मणां वा भिन्नकन्यायोनिसंस्थापना मूलकर्म- द्रव्यों को ग्रहण कर लिया है उसे मूलगुण-निवर्तना. विरक्तानां अनुरागजननं वा। (भ, प्रा. विजयो. निवतित तद्व्यतिरिक्त नोमागमद्रव्यमाष कहते हैं । २३०)। ३. स्यान्मूलकर्म चावशवशीकृतिवियुक्त- मूलगुणनितितद्रव्यताल-स्वायुषः परिक्षयादयोजनाभ्यां तत् ॥ (अन. ध. ५-२७)। पगतजीवो यः स्कन्धादिरूपस्तालः स मूलगुणनिवर्ति१ जो (दाता) वश में नहीं हैं उनको वश में करना तः । (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. ८४७) । तथा वियुक्तों का संयोग कराना, यह मूलकर्म नाम अपनी आयु के क्षीण हो जाने पर जो स्कन्ध प्रादि का एक उत्पादनदोष है।
रूप ताल है उसे मूलगुणनितितद्रव्यताल कहते हैं । मूलकर्मपिण्ड---१. यदनुष्ठानाद् गर्भशातनादेर्मल- मूलगुणनिवतितमाष-यो जीवविप्रमुक्तो माषः स मवाप्यते तद्विधानादवाप्तो मूलपिण्डः। (प्राचारा. मूलगुणनिवर्तितः । (बहत्क. भा. क्षे. वृ. ११२७) ।
जो माष (उडद) जीव से रहित हो चुका है उसे प्रसव-स्नपनक-मूलरक्षाबन्धनादि भिक्षार्थ कुर्वतो मूलगुणनिवतित मास कहते हैं । मूलकर्मपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. मूलगुणनिष्पन्नमंगल-मूलो नाम पृथिवीकाया१३६; धर्मसं. मान. ३-२२, पृ. ४१) । ३. मङ्ग- दिजीवः, तस्य गुणात् प्रयोगात् पुद्गलानां द्रव्यादिलस्नान-मूलिकाद्यौषधिरक्षादिना गर्भकरणविवाह- त्वेन व्यापारणात् निष्पन्नं मूलगुणनिष्पन्नं मृद्रव्याभङ्गादि वशीकरणादि च पिण्डार्थं कुर्वतो मूलकर्म। दि। (बृहत्क. भा. क्षे. वृ. ६)। (गु.गु. षट्. २०, पृ. ५०)।
मूल का अर्थ है पृथिवीकायादि जीव । उसके गुण १ जिस अनुष्ठान से गर्भशातन प्रादि का मल प्राप्त से-प्रयोग से-जो मिट्टी प्रादि द्रव्य निष्पन्न होता किया जाता है उस प्रकार के अनुष्ठान से भोजन है उसे मूलगुणनिष्पन्न मगल कहते हैं । प्राप्त करने पर मलपिण्ड नामक उत्पादनदोष मलपिण्ड-देखो मुलकर्मपिण्ड ।। होता है । २ जो गर्भ के स्तम्भन, गर्भाधान, प्रसूति, मूलप्रकृति - संगहियासेसवियप्पा दवट्टियणयणिस्नान कराना और मूलरक्षाबन्धन प्रादि को बंधणा मूलपयडी णाम । (धव. पु. ६, पृ. ५)। भिक्षा का साधन बनाता है उसके मलकर्मपिण्ड द्रव्याथिक नय के प्राश्रय से जो समस्त भेदों का नाम का उत्पादनदोष होता है।
संग्रह करने वाली प्रकृति है उसे मूलप्रकृति कहते मूलगुणनिवर्तना-१. मूलगुणनिवर्तना पञ्चशरी- हैं। राणि वाङमनःप्राणापानाश्च। (त. भा. ६-१०)। मूलप्र '- १. इहैकवक्तव्यताप्रणयना२. एवंविधानेकविशेषनिरपेक्षा यथोत्पन्नवर्तिनी न्मूलं तावत्तीर्थकरास्तेषां प्रथमः सम्यक्त्वाप्तिलक्षऔदारिकादिप्रायोग्यद्रव्य वर्गणा मलकारणव्यवस्थि- णपर्वभवादिगोचरोऽनयोगो मलप्रथमानयोगः । (नन्दी. तगुणनि वर्तनोच्यते । (त. भा. सिद्ध. व. २-१७)। हरि. व. पु. १०६)। २. इह धर्मप्रणयात् मूल १ पांच शरीर, वचन, मन और प्राणापान इन्हें तावत्तीर्थकरास्तेषां प्रथम [म:] सम्यक्त्वाप्तिलक्षणमूलगुणनिवर्तना कहा जाता है। जिस प्रकार उत्तर- पूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः । (समगुणनिवर्तना में चक्षुरादि इन्द्रियों का प्रजन प्रादि वा. अभय. वृ. १४७) । से संस्कार अपेक्षित है उस प्रकार मलगुणनिवर्तना १एक वक्तव्यता के प्रणेता होने से तीर्थकर मल हैं। में अन्य किन्हीं विशेषों की अपेक्षा नहीं रहती। उनका सम्यक्त्व को प्राप्ति रूप पूर्व भवादि को मूलगुणनिवर्तनातव्यतिरिक्तद्रव्यमाष-मूल- विषय करने वाला जो प्रथम अनुयोग-विस्तृत गुणनिवर्तिता नाम येन जीवेन तत्प्रथमतया माष- व्याख्यान-है उसे प्रथमानुयोग कहा जाता है ।
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