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योगानुयोग] ६५१, जैन-लक्षणावलो
[योगोद्वहनक्षत्र संक्रान्तिर्योगाद्योगान्तरे गतिः । (जाना. ४२-१७, पृ. रूप जीव की अनेक विशेषताओं में से एक है। ४३३)। ५. काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं गच्छति, ४ जिसकी प्रात्मा तत्त्व में, मन प्रात्मा में और तदपि त्यक्त्वा काययोगं व्रजतीति योगसंक्रान्तिः । इन्द्रियसमूह मन में युक्त (उपयुक्त या संलग्न) (भावप्रा. टी. ७८)।
हो वही योगी हो सकता है, न कि पर पदार्थों की १ काययोग को छोड़कर अन्य योग को तथा अन्य इच्छा रूप दुष्प्रवृत्ति से युक्त । योग को छोड़कर पुनः काययोग को ग्रहण करना, योगोद्वहन-तेषां (योगानां) निरुद्धपारणककालइसका नाम योगसंक्रान्ति है। ३ काययोग में उप- स्वाध्यायादिभिरुद्वहनं योगोद्वहनम् । (प्राचारदि. पृ. युक्त ध्यान का जो वचनयोग में संचार होता है ८१)। अथवा वचनयोग में उपयुक्त ध्यान का जो मनोयोग १पारणाकाल और स्वाध्याय प्रादि के निरोधपूर्वक में संचार होता है, इसे योगसंक्रान्ति कहते हैं। योगों के धारण या निर्वाह का नाम योगोद्वहन है। योगानुयोग--योगानयोगो वशीकरणादियोगाभि- योगोद्वहनकाल-सुभिक्षं साधूसामग्री सर्वोत्पाताघायकानि हरमेखलादिशास्त्राणि । (समवा. अभय. द्यभावता । कालिकेपूत्कालिकेषु योगेषु समयो ह्ययं ।। वृ. २६)।
आर्द्रादिस्वात्यन्ते नक्षत्रगणे विवस्वता युक्ते । कालिवशीकरण प्रादि योगों के प्ररूपक हरमेखल (कला- कयोगानामयमुपयोगी काल उद्दिष्टः ।। पार्दादिस्वाविशेष) प्रादि शास्त्रों को योगानुयोग कहा जाता त्यन्ते नक्षत्रगणे विवस्वता भुवते । स्तनिते विद्युति है । यह उनतीस प्रकार के पाप के उपादान स्वरूप वष्टौ कालग्रहण न कर्तव्यम ।। (आचारदि. प. पापश्रुत में २८वां है।
८२ उद्.) । योगाविभागप्रतिच्छेद-एक्कम्हि जीवपदेसे जो- सुभिक्ष, साधुसामग्री और समस्त उपद्रवों का गस्स जा जहणिया वड्ढी सो जोगाविभागपडि- प्रभाव, यह कालिक और उत्कालिक योगों के लिये च्छेदो। (धव. पु. १०, पृ. ४४०)।
उपयुक्त समय है। प्रार्द्रा से लेकर स्वाति तक सूर्य एक जीवप्रदेश में योग की जो जघन्य वृद्धि हुमा से युक्त नक्षत्रसमूह में कालिक योगों का यह करती है उसे योगाविभागप्रतिच्छेद कहा जाता है। उत्कृष्ट काल निर्दिष्ट किया गया है। प्राा से योगी-१. विकहाइविप्पभुक्को प्राहाकम्माइविर- स्वाति तक सूर्य से युक्त नक्षत्रसमूह में मेघगर्जन हिनो णाणी । धम्मुद्देसणकुसलो अणुपेहाभावणाजुदो विजली व वृष्टि के होने पर काल का ग्रहण नहीं जोई ॥ प्रवियप्पो णिइंदो णिम्मोहो णिक्कलंकरो करना चाहिए । णियदो। णिम्मलसहावजुत्तो जोई सो होइ मुणि- योगोद्वहनक्षेत्र - बहुसलिल मृदुलभिक्षं स्वचक्ररानो । (र. सा. १००-१०१) । २. जोगो अत्थि परचक्रभयविनिर्मुक्तम् । वहुयति-साध्वी-श्राद्धं बहूत्ति जोगी। (धव. पु. १, पृ. १२०); योगो अस्या- शास्त्रविशारदाकीर्णम् ॥ नीरोगजलान्नयुतं चर्मास्तीति योगी। (धव. पु. ६, पृ. २२१) । ३ कंद- स्थि-कचादिसङ्करविमुक्तम् । अहि-जंबुक-वृष-दंशक. प्पदप्पदलणो डंभविहीणो विमुक्कवावारो। उग्ग- वृषपल्ली-सरट निर्मुक्तम् ॥ प्रायः पवित्ररथ्यं रुग्मारीतवदित्तगत्तो जोई विण्णायपरमत्थो॥ (ज्ञानसार प्रभृतिजितं नित्यम् । अल्पकषायपुरजनं योगोद्वहने ४) । ४. तत्त्वे पुमान् मनः पुंसि मनस्यक्षकदम्बकम् । शुभं क्षेत्रम् ।। (प्राचारदि. पृ. ८२ उद्.)। यस्य युक्तं स योगी स्यान्न परेच्छादुरीहितः ॥ जहां बहुत पानी और मृदु भिक्षा हो, जो स्वचक्र (उपासका. ८७०)।
और परचक्र के भय से रहित हो, जहां साधु, १ जो मुनीन्द्र विकथा आदि से रहित, प्राधाकर्म साध्वी और श्रावक बहुत हों, जो बहुत से शास्त्रज्ञों का त्यागी, धर्मोपदेश में कुशल, अनप्रेक्षा व भाव- से व्याप्त हो, स्वास्थ्यप्रद जल व अन्न से परि नामों से युक्त, विकल्पों से रहित, निर्द्वन्द्व, निर्मोह, हो, चमड़ा, हड्डी व बालों आदि के सम्पर्क से रहित निष्कलंक और निर्मल स्वभाव से सहित होता है हो; सर्प, शृगाल, बैल, डांस, वृषपल्ली एवं गिरउसे योगी समझना चाहिए। २ योग से सहित गिटों से शून्य हो; जहां की गलियां प्रायः पवित्र हों, योगी कहलाता है। यह कर्ता, वक्ता व प्राणी प्रादि जो रोग व मारी (प्लेग) आदि से रहित हो, तथा
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