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रम्यकक्षेत्र]
१ श्राठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु होता है । २ श्राठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु होता है । रम्यकक्षेत्र रमणीयदेशयोगाद्रम्यका भिधानम् । यस्माद्रमणीयदेशैः सरित्पर्वत काननादिभिर्युक्तस्तस्मादसौ रम्यक इत्यभिधीयते । (त. वा. ३, १०, १४) ।
रमणीय देशों, नदियों, पर्वतों और वनों से युक्त होने के कारण जम्बूद्वीपस्थ चौथे क्षेत्र को रम्यक कहा जाता है ।
रस ( धातु विशेष ) - रसो भुक्त-पीतान - पानपरिनामजो निस्यन्दः । (योगशा. ४ -७२ ) । खाये गये अन्न व पिये गये पान ( दूध आदि) के परिपाक से जो निस्यन्द ( पतली धातुविशेष) उत्पन्न होता है उसका नाम रस है । यह शरीरगत सात धातुत्रों में प्रथम है । रस (जिह्वन्द्रिय का विषय ) - १. तथा रस आस्वादन - स्नेहनयोः, रस्यते श्रास्वाद्यते रसः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७३ ) । २. रस्यते रसः, रसयुक्तोऽर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. २ -२० ) । १ जिसका जिह्वा से प्रास्वाद लिया जाता है वह रस कहलाता है । २ रसयुक्त पदार्थ को रस कहते हैं ।
रसकषाय - १. रसकसानो णाम कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा कसाओ । ( कसायपा. चू. पृ. २५) । २. रसश्रो रसो कसायो । (विशेषा. गा. ३५३२-ला. द. ग्रह.) । ३. रसतो रसकषायः कटु-तिक्तकषायपञ्चकान्तर्गतः । ( श्राचा. नि. शी. वृ. १६०, पृ. ८२ ) ।
२ रस के श्राश्रय से जो कषाय होती है उसे रसकषाय कहा जाता है । रसगौरव
६५४, जैन- लक्षणावली
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अभिमतरसात्यागोऽनभिमतानादरश्च नितरां रसगौरवम् । (भ. श्री. विजयो. ६१२ ) । श्रभीष्ट रस का त्याग न करना तथा श्रनिष्ट रस के विषय में अनादर का भाव (द्वेषबुद्धि) रखना, इसे रसगौरव कहा जाता है । रसत्याग - देखो रसपरित्याग । तथा रसानां मतुलोपाद् विशिष्टरसवतां वृष्याणां विकारहेतूनाम्, अतएव विकृतिशब्दवाच्यानां मद्यमांस-मधु-नवनीता नां दुग्ध-दधि-तैल- गुडावग्राह्यादीनां च त्यागो वर्जनं रसत्यागः । (योगशा. स्वो विव. ४-८९ ) ।
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[ रसनाम
विशिष्ट रस से युक्त व विकार के कारणभूत गरिष्ठ पदार्थों का तथा मद्य, मांस, मधु, मक्खन एवं दूध, दही, घी, तेल व गुड आदि का त्याग करना, इसे रसत्याग (तपविशेष ) कहते हैं । रसन - १. वीर्यान्तराय-मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मना XXX रस्यतेऽनेनेति रसनम् । XX X रसतीति रसनम् । ( स. सि. २ - १९ ) । २. रसयत्यनेनात्मेति रसनम् । XX X रसयतीति रसनम् । (त. वा. २ - १९) । ३. रस्यते प्रास्वाद्यतेऽर्थोऽनेनेति रसनम्, रसयत्यर्थमिति वा रसनम् । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १९ ) ।
१ जिसके द्वारा स्वाद लिया जाता है अथवा जो स्वाद को ग्रहण करती है उस इन्द्रियविशेष को रसन ( जिह्वा) कहा जाता है । रसननिवृत्ति - अर्धचन्द्राकारा क्षुरप्राकारा वा अङ्गुलस्यासंख्येय भाग प्रमिता रसननिर्वृत्तिः । ( धव. पु. १, २३५ ) ।
रसनेन्द्रिय नाम वाले श्रात्मप्रदेशों में जो अर्द्ध चन्द्र श्रथवा खुरपे के प्राकार अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण पुद्गलपिण्ड होता है वह रसना इन्द्रिय की बाह्य निर्वृत्ति कहलाती है ।
रसनाजय - १. असणादिचदुवियप्पे पंचरसे फासूगम्हि णिरवज्जे । इट्ठा णिट्ठाहारे दत्ते जिन्भाजन - गिद्धी । (मूला. १ -२० ) । २. गृहिदत्तेन - पानादावदोषे समतायुतम् । गात्रयात्रानिमित्तं यद् भोजनं रसनाजयः ।। ( श्राचा. सा. १-३१) ।
१ दाता के द्वारा दिये गये पांच रसयुक्त प्रासुक व निर्दोष श्रशनादिरूप ( प्रशन, पान, खाद्य व स्वाद्य ) चार प्रकार के आहार में, चाहे वह इष्ट हो श्रथवा अनिष्ट हो, राग-द्वेष व लोलुपता न होना, यह साधु का जिह्वाजय या रसनेन्द्रियजय कहलाता है । यह २८ मूलगुणों के अन्तर्गत है । रसनामकर्म - १. यन्निमित्तो रसविकल्पस्तद्रसनाम | ( स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १०; भ. प्रा. मूला. २१२४) । २. जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण जीवसरीरे जादिपडिणियदो तित्तादिरसो होज्ज तस्स कम्मक्खंधस्स रससण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ५५ ) ; जस्स कम्मस्सुदएण सरीरे रसणिफत्ती होदि तं रसणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६४) । ३. यस्य कर्म स्कन्धस्योदयाज्जीवशरीरे जातिप्रतिनियततिक्ता
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