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राजर्षि] १५८, जैन-लक्षणावली
[रात्रिभक्तव्रत चतुर्थः स्थितिकाल्यः । (भ. प्रा. मूला. ४२१)। कम्पमानमनाः॥ (रत्नक. ५-२१) । २. रात्री १राज शब्द से यहां जो इक्ष्वाकु प्रादि कुल में भुञ्जानानां यस्मादनिवारिता भवति हिसा। हिसाउत्पन्न हुए हैं उन्हें ग्रहण किया गया है, जो प्रजा विरतेस्तस्मात् त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥ (पु. को अनुरंजित करता है वह तथा उसके समान महा १२९)। ३. रात्रिभक्तव्रता रात्री स्त्रीणां भजनं ऋद्धि का धारक भी राजा कहलाता है। उसके रात्रिभक्तं तद् व्रतयति सेवत इति रात्रिव्रतातियहां भोजन आदि को ग्रहण न करना, यह राज- चारा रात्रिभक्तवतः दिवाब्रह्मचारीत्यर्थः । (चा. पिण्डाग्रहण नाम का चौथा स्थितिकल्प है। सा. पृ. १६)। ४. जो चउविहं पि भोज्जं रयराषि-१. तत्र राजर्षयो विक्रियाऽक्षीणद्धिप्राप्ता णीए व भंजदे णाणी । ण य भंजावइ अण्णं णि सिभवन्ति । (चा. सा. पृ. २२)। २. विक्रियाऽक्षीण- विरो सो हवे भोज्जो ॥ (कार्तिके. ३८२) । ऋद्धीशो यः स राजर्षिरीरितः । (धर्मसं. श्रा. ६, ५. स्त्रीवैराग्यनिमित्तकचित्तः प्राग्वृत्तनिष्ठितः । २८६)।
यस्त्रिधाऽह्नि भजेन्न स्त्री रात्रिभक्तव्रतस्तु सः॥ १ जो विक्रिया और अक्षीण ऋद्धि के धारक होते रात्रावपि ऋतावेव सन्तानार्थमृतावपि । भजन्ति हैं उन्हें राजर्षि कहा जाता है।
वशिनः कान्तां न तु पर्वदिनादिषु ॥ रात्रिभक्तव्रतो राजा-१. वररयणमउडधारी सेवयमाणाण वत्ति रात्री स्त्रीसेवावर्तनादिह । निरुच्यतेऽन्यत्र रात्रौ चतू. तह अट्ठ। देता हवेदि राजा जिदसत्त समरसंघटटे। राहारवर्जनात् ।। (सा. घ. ७-१२ व ७, १४-१५)। (ति. प. १-४२) । २. अष्टादशसंख्यानां श्रेणीना-६. प्राच्यपञ्चक्रियानिष्ठः स्त्रीसंयोगविरक्तधीः । मधिपतिविनम्राणाम् । राजा स्यान्मुकुटघर: कल्पतरुः त्रिधा योऽह्नि श्रियेन्न स्त्रीं रात्रिभक्तवतः स तु ॥ सेवमानानाम् ॥ (धव. पु. १, पृ. ५७ उद्.)। ३. एतद्य[दु]क्त्या किमायातं दिवा ब्रह्मव्रतं त्विति । रात्री योऽनुकूल-प्रतिकूलयोरिन्द्र-यमस्थानं स राजा । भक्तञ्जनीसेवां(?)यः कुर्याद्रात्रिभक्तिकः । अन्ये चा(नीतिवा. ५-१)।
हुर्दिवाब्रह्मचर्य चानशनं निशि । पालयेत्स भवेत्षष्ठः १ जो उत्तम रत्नों के मुकुट को धारण करता है, श्रावको रात्रिभक्तिकः ॥ (धर्मसं. श्रा. ८, २० से सेवा करने वालों की वृत्ति (प्राजीविका) और २२)। ७. रात्रिभक्तपरित्यागलक्षणा प्रतिमास्ति अर्थ को देता है तथा युद्धस्थल में शत्रुओं को जीतने सा। विख्याता संख्यया षष्ठी सद्मस्थश्रावकोचि. वाला है उसे राजा कहते हैं। २ जो मुकुट को ता॥ इतः पूर्वं कदाचिद् वा पयःपानादि स्यान्निशि । धारण करता हुमा विनम्र अठारह श्रेणियों का इतः परं परित्यागः सर्वथा पयसोऽपि तत् ॥ यद्वा स्वामी होता है वह राजा कहलाता है। वह सेवा विद्यते नात्र गन्ध-माल्यादिलेपनम् । नापि रोगोपकरने वालों के लिए कल्पवृक्ष जैसा होता है। शान्त्यर्थं तैलाभ्यंगादिकर्म तत् । किञ्च रात्रौ यथा राजु-देखो रज्जु ।
भक्तं वर्जनीयं हि सर्वदा। दिवा योषिव्रतं चापि राज्य-राज्ञः पृथ्वीपालनोचितं कर्म राज्यम् । षष्ठस्थानं [ने] परित्यजेत् । (लाटीसं. ७, १८ से (नीतिवा. ५-४, पृ. ४३)।
२१)। पृथ्वी के रक्षण के योग्य जो राजा का कार्य है उसे १जो रात में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इस 'राज्य कहा जाता है।
चार प्रकार के प्राहार को ग्रहण नहीं करता है वह राज्याख्यान-अमुष्मिन्नधिदेशोऽयं नगरं वेति रात्रिभक्तिविरत-छठी प्रतिमा का धारक कहतत्पते: । आख्यानं यत्तदाख्यातं राज्याख्यानं जिना- लाता है। ३ जो रात में स्त्री के सेवन का-रात में गमे ॥ (म. पु. ४-७)।
ही सेवन करूंगा, दिन में नहीं-व्रत करता है उसे यह अमुक देश व नगर का अधिपति है इत्यादि रात्रिभक्तविरत कहते हैं। ५ पूर्व की पांच प्रतिप्रकार से उसके स्वामी का वर्णन करने को राज्या- माओं का परिपालन करता हना जो दिन में मन, ख्यान कहा जाता है।
वचन व काय से स्त्री का सेवन नहीं करता है वह रात्रिभक्तवत-१. अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति रात्रिभक्तवती होता है। इस प्रतिमा का धारक यो विभावर्याम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनु- उसका सेवन रात में भी ऋतुमती अवस्था को
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