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यतिदोष] १४२, जैन-लक्षणावली
यथाख्यातचारित्र] संसारतरणार्थाय योगभाग् यतिरुच्यते ॥ (नीतिवा. मानुष्येषु तर्यग्योनिषु च स्थानान्तरेषु च यत्र यत्र टी. ५-३४)।
कामयते तत्र तत्र पावसतीति । (न्यायकु. १-४, पृ. १ जो संयम व योग में प्रयत्न कर रहा है वह यति १११) । कहलाता है। २ जो उपशम या क्षपक श्रेणी पर ब्राह्म, प्राजापत्य, देव, गान्धर्व, यक्ष, राक्षस, पित्र्य प्रारूढ होते हैं उन्हें यति कहा जाता है। ३ जो और पैशाच इस पाठ प्रकार के देवसर्ग में; मानुष्यपापरूप पाश को नष्ट करने का प्रयत्न करता है सर्ग में; पश, पक्षी, मग, सरीसृप और स्थावर इन उसका नाम यति है। ४ जो शरीररूप उद्यान से पांच तिर्यग्भेदों में तथा और भी विभिन्न स्थानों में युक्त होता हुमा समीचीन विद्यारूप नौका के प्राश्रय इच्छानुसार निवास करना; इसका नाम यत्रकामा. से तुष्णारूप नदी से पार होने के लिए प्रयत्न करता वसायिता है। यह अणिमा-लघिमादि रूप पाठ है उसे यति कहा जाता है। ५ जो दीर्घकाल से । प्रकार के ऐश्वर्य में अन्तिम है। दीक्षित है उसे यति कहते हैं।
यस्थितिबन्ध (जदिदिबंध)-जट्टिदिबंधो णाम यतिदोष-यतिदोषः अस्थानविच्छेदः प्रकरणं वा। आबाहाए सहिदजहण्णट्टिदिबंधो, पहाणीकयकालत्ता(प्राव. नि. मलय. व. ८८३)।
दो। (धव. पु. ११, पृ. ३३६) । प्रस्थान में यति (विश्रान्ति) का विच्छेद करना, प्राबाधा से सहित जघन्य स्थितिबन्ध का नाम अथवा करना ही नहीं; यह ३२ सूत्रदोषो में २२वां यस्थितिबन्ध है। यतिदोष है।
यस्थितिसंक्रम-जा जंमि संकमणकाले ट्ठिति सा यतिधर्म-१. निजागमोक्तमनुष्ठानं यतीनां स्वो जट्टिती, सा जस्स अस्थि सो संकमो जट्ठितिसंकमो। धर्मः। (नीतिवा. ७-१५, पृ. ८६)। २. यतिधर्मः (कर्मप्र. च. सं. क. ३१, पृ. ६०)। सर्वसावद्ययोगविरतिलक्षणः। (योगशा. स्वो. विव. कर्म की संक्रमण के समय जो स्थिति होती है वह ३-१२४) । ३. सावज्जजोगपरिवज्जणामो सव्वुत्त- यस्थिति कहलाती है और उसके संक्रमण को मो जईधम्मो। (प्राचारदि. पृ. २ उद्.); यति- यत्स्थितिसंक्रमण कहते हैं। धर्मो हि महाव्रत-समिति-गुप्तिधारण-परीषहोपसर्ग- यथाख्यातचारित्र-देखो यथाख्यातसंयत । १ मोसहन-कषाय-विषय-जय-श्रुतधारण-बाह्याभ्यन्तरतप:- हनीयस्य निरवशेषस्योपशमात् क्षयाच्च प्रात्मस्वभाकरणयोगैर्दुरासदो मोक्षस्य पन्था। (प्राचारदि. पृ. वावस्थापेक्षालक्षणम् प्रथाख्यातचारित्रमित्याख्याय२ उद्.)। ४. तथा चारायण:- स्वागमोक्तमनुष्ठानं ते । पूर्वचारित्रानुष्ठायिभिराख्यातं न तत् प्राप्तं यत् स धर्मो निजः स्मृतः । लिङ्गिनामेव सर्वेषां यो- प्राङ्मोहक्षयोपशमाभ्यामित्यथाख्यातम् । अथशब्दऽन्यः सोऽधर्मलक्षणः ।। (नीतिवा. टी. ७-१५)। स्यानन्तर्यार्थवृत्तित्वान्निरवशेषमोहक्षयोपशमानन्तर१ अपने प्रागम में निर्दिष्ट धर्म का प्राचरण करना, माविर्भवतीत्यर्थः। यथाख्यातमिति बा, यथात्मस्वयह यतियों का निज धर्म है। २ समस्त सावद्ययोग। भावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात् । (स. सि. ६-१८)। से विरत होना, इसका नाम यतिधर्म है।
२. निरवशेषशान्त-क्षीणमोहत्वादथाख्यातचारित्रम् । यतिप्रायश्चित्त- १. स्वधर्मव्यतिक्रमेण यतीनां चारित्रमोहस्य निरवशेषस्योपशमात् क्षयाच्चात्मस्वस्वागमोक्तं प्रायश्चित्तम् । (नीतिवा. ७-१६, पृ. भावावस्थापेक्षलक्षणमथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते । ८६)। २. तथा च वर्ग:-स्वदर्शनविरोधेन यो पूर्वचारित्रानुष्ठायिभिराख्यातम्, न तु परिप्राप्त धर्माधर्ममाचरेत् । स्वागमोक्तं भवेत् तस्य प्रायश्चित्तं प्राङ्मोहक्षयोपशमाभ्यामित्यथाख्यातम् । अथ शब्दविशुद्धये। (नीतिवा. टी. ७-१६) ।
स्यानन्तर्यार्थवृत्तित्वानिरवशेषमोहक्षयोपशमानन्तर . १अपने धर्म के विपरीत प्राचरण करने पर यतियों माविर्भवतीत्यर्थः । यथाख्यातमिति वा । अथवा के लिए अपने प्रागम के अनुसार प्रायश्चित्त । यथात्मस्वभावोऽवस्थितः तथैवाख्यातत्त्वात् यथाहोता है।
ख्यातमित्याख्यायते । (त. वा. ६, १८, ११-१२)।
३. प्रथशब्दो यथा-शब्दार्थो (सिद्ध. व. 'थे') यथाब्राह्म-प्राजापत्य-देव-गान्धर्व-यक्ष-राक्षस-पित्र्य-पैशाचेष ख्यातः संयमो भगवता तथाऽसावेव । कथं च
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