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प्रायश्चित्त ]
निगद्यते । ( अन. ध. स्वो टी. ७-३७ उद्) । १५. प्रकृष्टो यः शुभावहो विधिर्यस्य साधुलोकस्य स प्रायः प्रकृष्टचारित्रः प्रायस्य साधुलोकस्य चित्तं यस्मिन् कर्मणि तत्प्रायश्चित्तम् श्रात्मशुद्धिकरं कर्म, अथवा प्रगतः प्रणष्टः श्रयः प्रायः अपराधः तस्य चित्तं शुद्धिः प्रायश्चित्तम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२० ) । १६. अपराधं प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतात् पापात् विशुद्धयते पूर्वव्रर्तः संपूर्णो भवतीति प्रायश्चित्तम् । ( कार्तिके. टी. ४४६ ) १७. प्रायो दोषेऽप्यतीचारे गुरौ सम्यग्निवेदिते । उद्दिष्टं तेन कर्तव्यं प्रायश्चित्तं तपः स्मृतम् ।। ( लाटीसं. ७, ८२) ।
१ प्रायश्चित्त यह एक तप है, अपराध को प्राप्त होकर जीव जिस तप के द्वारा पूर्वकृत पाप से शुद्धि को प्राप्त होता है उसे प्रायश्चित्त तप कहा गया है । वह प्रालोचनादि के भेद से दस प्रकार का हैं । २ प्रायश्चित्त चूंकि पाप को नष्ट करता है, इसीलिए उसे प्रायश्चित्त (पापच्छित् ) कहा जाता है । अथवा उससे प्रायः चित्त शुद्धि को प्राप्त होता है, इसलिये वह प्रायश्चित्त कहलाता है । प्रायश्चित्तप्रद द्वादशांगधरोऽप्येको न कृच्छ दातुमर्हति । तस्माद् बहुश्रुताः प्राज्ञाः प्रायश्चित्तप्रदाः स्मृताः ॥ ( उपासका ३५१ ) । द्वादशांग का धारक भी एक आचार्य प्रायश्चित्त देने के योग्य नहीं होता, इसलिए बहुत श्रुत के पारंगत अनेक विद्वान् प्रायश्चित्तप्रद-प्रायश्चित्त के देने वाले माने गये हैं । प्रायश्चित्तानुलोम्य - प्रायश्चित्तानुलोम्यं च गीतार्थस्य शिष्यस्य भवति । स हि पञ्चक- दशकपञ्चदशक क्रमेण प्रायश्चित्तानि गुरु-लघ्वपराधानुरूपाणि विज्ञाय योऽपराधो गुरुस्तं प्रथममालोचयति, पश्चाल्लघु लघुतरं च । (योगशा. स्वो विव. ४, ६०, पृ. ३१२) । प्रायश्चित्तानुलोम्य गीतार्थ ( विद्वान् ) साधु के होता है । कारण कि वह पंचक, दशक और पंचदशक के क्रम से गुरु और लघु अपराध के अनुकूल प्रायश्चित्त को जानकर जो अपराध गुरु ( महान् ) होता है, उसकी आलोचना प्रथम करता है, तत्पश्चात् लघु और लघुतर अपराध की आलोचना करता है । प्रायोगमनमरण - देखो पादोपगमनमरण ।
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[ प्रायोपगमन
प्रायोगिक बन्ध - देखो प्रयोगबन्ध | प्रायोगिक भाषात्मकशब्द भाषात्मकः सर्वोऽपि साक्षरानक्षररूपः प्रायोगिक : इत्युच्यते, पुरुषप्रयोगहेतुत्वात् XXX प्रायोगिक : ( प्रभाषात्मकः ) चतुष्प्रकारः तत वितत-घन-सुषिरभेदात् । (त. वृत्ति श्रुतः ५-२४) ।
पुरुष के प्रयोग से उत्पन्न हुए अक्षरात्मक व अनक्षरात्मक शब्दों को प्रायोगिक भाषात्मक व प्रभाषात्मक शब्द कहते हैं । प्रायोग्यगमनमरण- देखो पादोपगमनमरण । प्रायोग्यलब्धि - १. सव्वकम्माणमुक्कस्सट्ठिदिमुकस्साणुभागं च घादिय तोकोडाकोडिद्विदिम्हि ट्टणाणुभागे च प्रवद्वाणं पात्रोग्गलद्धी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २०४ ) । २. अंतोकोडाकोडी विद्वाणे ठिदि-रसाण जं करणं । पाउग्गलद्विणामा भव्वाभव्वेसु सामण्णा || (लब्धिसा. ७) । ३. अन्त. कोटीकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्यमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामयोगेन सत्कर्मसु संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामन्तःकोटीकोटी सागरोपमस्थितौ स्थापितेषु श्राद्यसम्यक्त्वयोग्यता भवतीति प्रायोगिकी लब्धिः । (पंचसं श्रमित. १-३७ ग्रन्. ध. स्वो. टी. २-४६) । ४. कश्चिज्जीवो लव्धित्रयसम्पन्नः प्रतिसमयं विशुद्धयन् ग्रायुर्वजितसप्तकर्मणां तत्कालीन स्थितिमेक कांडकघातेन छित्त्वा कांडकद्रव्यमन्तःकोटाकोटिमात्रावशिष्टस्थितौ निक्षिपति । अप्रशस्तानां घातिनामनुभागं वानन्तबहुभागप्रमाणं खंडयित्वा तद् द्रव्यं लता - दारुसमाने द्विस्थानमात्रे अघातिनां च निब- कांजीरसमाने अवशिष्टानुभागे निक्षिपति तदा जीवस्य तत्करणं प्रायोग्यतालब्धिर्नाम । ( ल. सा. टी. ७) ।
१ सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को घात कर श्रन्तःकोडाकोडी प्रमाण स्थिति में तथा अनुभाग को घातकर द्विःस्थान अनुभाग में पापस्वरूप घातिया कर्मों के लता और दारुरूप अनुभाग में तथा श्रघातिया कर्मों के नीम श्रौर कांजीररूप अनुभाग में स्थापित करने का नाम प्रायोग्यलब्धि है । प्रायोपगमन ( पावगमण ) -- देखो पादोपगमनमरण । १. वोसट्टचत्तदेहो दु णिक्खिवेज्जो जहि जथा अंगं । जावज्जीवं तु सयं तहि तमंगं ण चालेज्ज || एवं णिप्पडियम्मं भणति पानोवगमणमर
७६६, जैन-लक्षणावली
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