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भावजीव] ८४३, जैन-लक्षणावली
[भावदीप भावजीव---१. भावतो जीबा औपशमिक-क्षायिक- दूसरों के अपमानादि की कारणभूत चित्त की कलुक्षायोपशमिकोदयिक-पारिणामिकभावयुक्ता उपयोग- षता के अभाव को भावतः क्रोधविवेक कहते हैं। लक्षणाः.xxx । (त. भा. १-५) । २. ज्ञाना- भावतः मानविवेक-भावतः 'एतेभ्योऽहं प्रकृष्टः' दिगुणपरिणतिभाक्त्वं तु भावजीवः। (त. भा. हरि. इति मनसाहंकारवर्जनं भावतो मानकषायविवेकः । वृ. १-५) । ३. स एव ज्ञानादिगुणपरिणतिभाक्त्वेन (भ. प्रा. विजयो. व मूला. १६८) । विवक्षितो भावजीवः । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, “इनसे मैं श्रेष्ठ हूँ" इस प्रकार का मन से अभिमान पृ. ४५); भावैः सह वर्तन्ते इति ते भावजीवाः। न करना, इसे भावतः मानविवेक कहते हैं। (त. भा. सिद्ध. व. १-५, पृ. ४८)। ४. भावतो- भावतः लोभविवेक-भावतो ममेदंभावरूपमोहऽनन्तज्ञानानन्तदर्शन-चारित्र- देशचारित्राचारित्रागुरु- जपरिणामापरिणतिः । (भ. प्रा. मूला. १६८)। लघुपर्यायवान् । (प्राव. नि. मलय. बृ. १२६, पृ. 'यह मेरा है' इस प्रकार के ममेदभावरूप मोह से १३१) ।
जो परिणाम उत्पन्न होता है उस रूप परिणत न १ प्रौपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, प्रौदयिक होना; इसका नाम भावतः लोभविवेक है। ' और पारिणामिक भावों से युक्त उपयोगस्वरूप भावतीर्थ-१. सण-णाण-चरित्ते णिज्जुत्ता जिणजीवों को भावजीव कहा जाता है। ४ जो भावत: वरा दु सव्वेपि । तिहि कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, चारित्र, देशचारित्र, भावदो तित्थं । (मला. ७-६३)। २. अट्टविहं प्रचारित्र और प्रगुरुलघु पर्याय से युक्त हो वह कम्मरयं बहुएहि भवेहिं संचिग्रं जम्हा । तव-संजभावजीव कहलाता है।
मेण धुव्वइ तम्हा तं भावग्रो तित्थं ।। दंसण नाणभावज्ञान-देखो भावसम्यग्ज्ञान ।
चरित्तेसु निउत्तं जिणवरेहि सव्वेहि। तिसु अत्थेसु भावतप-भावतपः प्रात्मस्वरूपैकाग्रत्वरूपम् । निउत्तं तम्हा तं भावप्रो तित्थं ॥ (पाव. नि. (ज्ञा. सा. वृ. ३१-१)।
१०६८-६९)। ३. इह भावतीर्थ क्रोधादिनिग्रहमात्मस्वरूप में एकाग्रता का होना ही भावतप समर्थ प्रवचनमेव गृह्यते । (प्राव. नि. हरि. वृ. कहलाता है।
१०६७)। भावतः इन्द्रियविवेक-१. भावत इन्द्रियविवेको १ सभी जिनेन्द्र (तीर्थकर) दर्शन, ज्ञान और चारित्र नाम जातेऽपि विषय-विषयिसम्बन्धे रूपादिगो- से संयुक्त रहते हैं। इसीलिए दाह को शान्ति, चरस्य विज्ञानस्य भावेन्द्रियाभिधानस्य राग-कोपा- तृष्णा का छेद और मलरूप कीचड़ का भ्यां विवेचनं राग-कोपसहचारिरूपादिविषयमानस- शोधन, इन तीन कारणों से उन्हें भावसतीर्थ कहा ज्ञानापरिणतिर्वा । (भ.प्रा. विजयो. १६८) । जाता है। २ बहत भवों से संचित कर्मरूप रज २. भावतस्तु जातेऽप्यक्षार्थयोगे रूपादिज्ञानस्य भावे- (धलि) चंकि तप-संयम के द्वारा धोयी जाती है, न्द्रियाभिधानस्य राग-द्वेषाभ्यां विवेचनं तत्सहचारि- इसीलिए दाहशान्ति प्रादि तीन अर्थों में नियुक्त रूपादिविषयमानसज्ञानापरिणतिर्वा । (भ. प्रा. प्रवचन को अथवा तप-संयम को भावतः तीर्थ कहते मूला. १६८)।
हैं। सभी जिनेन्द्रों ने दर्शन, ज्ञान व चारित्र में नियक्त १ विषय (रूपादि) और विषयी (इन्द्रिय) का किया है, इसीलिए उक्त तीन अर्थों में नियुक्त सम्बन्ध होने पर भी भावेन्द्रिय नामक रूपादिविष- उसे (प्रवचन को) भावतः तीर्थ कहा जाता है। यक ज्ञान की राग-द्वेष से पृथकता को अथवा राग- भावदीप-यस्तु श्रुतज्ञानात्मको भावदीप: अक्षरद्वेष के सहचारी रूपादिविषयक मानस ज्ञान से पद-पाद-श्लोकादिसंहतिनिर्वत्तित: स संयोगिमः, परिणत न होने को भावतः इन्द्रियविवेक कहा यस्त्वन्यनिरपेक्षो निरपेक्षतया च न संयोगिमः स जाता है।
केवलज्ञानात्मकोऽसंयोगिमो भावदीपः । (उत्तरा. काधाववक-परपरिभवादिनिमित्तचित्त- शा. वृ. २०७, पृ. २१२)। कलंकाभावो भावतः क्रोधविवेकः। (भ.पा. विजयो. भावदीप संयोगिम और प्रसंयोगिम के भेद से दो व मूला. १६८)।
प्रकार का है। उनमें जो अक्षर, पद, पाद और
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