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मार्गणा] ६११, जैन-लक्षणावली
[मार्गदूषणा (नि. सा. वृ. २)। ५. मृज्यते शोध्यतेऽनेनात्मा वस्तुप्रकर्षापकर्षानुविधायिनावित्यन्वयधर्मालोचनं माइति मार्गः, मार्गणं वा मार्गः, शिवस्यान्वेषण- र्गणा । (जम्बूद्वी. शा. वृ. ७०)। मिति भावः। उक्तं च-मग्गिज्जइ सोहिज्जइ जेण १ अन्वय धर्म को प्रार्थना (अन्वेषण) का नाम ता पवयणं तपो मग्गो। प्रहवा सिवस्स मग्गो मार्गणा है। यह प्राभिनिबोधिक ज्ञान का नामान्तर मग्गणमण्णेसणं पंथो ॥ (प्राव. नि. मलय. वृ. है। ४ मार्गणा, गवेषण और अन्वेषण ये समनार्थक १२७)।
शब्द हैं। इसमें चंकि सत-संख्या प्रादि से विशिष्ट १ जो शुद्ध है उसका नाम मार्ग है। अभिप्राय यह चौदह जीवसमासों (गुणस्थानों) का अन्वेषण है कि जिस प्रकार कांटे, कंकड़ और बालु प्रादि किया जाता है अतएव गति, इन्द्रिय व काय प्रादि दोषों से रहित मार्ग से पथिक सुखपूर्वक अभीष्ट चौदह स्थानों का मार्गण या मार्गणा यह सार्थक स्थान को पहुंचते हैं उसी प्रकार मिथ्यादर्शन एवं नाम है। xxx अवग्रह से गहीत पदार्थ विशेष असंयमादि दोषों से रहित तीन अंशरूप (रत्नत्रय का जिसके द्वारा अन्वेषण किया जाता है उसे स्वरूप) कल्याणकर मार्ग (मोक्षमार्ग) से मुमुक्षु मार्गणा कहा जाता है। यह एक ईहा मतिज्ञान का जन सुखपूर्वक मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
नामान्तर है। ६ अपनी रत्नत्रय की शुद्धि व मार्गणा - १. मार्गणा त्वन्वयधर्मप्रार्थना । (विशे- समाधिमरण के सम्पादन करने में समर्थ प्राचार्य षा को वृ. ३६६, पृ. १५२) । २. अन्वयधर्मान्वे- के अन्वेषण को मार्गणा कहा जाता है। यह भक्तषणा मार्गणा । (प्राव. नि. हरि. व मलय. ७. प्रत्याख्यान को स्वीकार करने वाले क्षपक के प्रहादि १२) । ३. मार्गणा विशेषधर्मान्वेषणारूपा संविदि- लिंगों में से एक है। त्यर्थः । यथा-शब्दः किं शाङ्खः किं वा शाङ्गः इति ।
मार्गतः अन्तगत: अवधिज्ञान-मग्गयो अन्तगयं xxx अथवा अवगतार्थाभिलाषे, तत्प्रार्थना
-से जहानामए केइ पुरिसे उवकं वा चडुलिग्रं वा मार्गणा । (नन्दी. हरि. वृ पृ. ७८)। ४. xx
अलायं वा मणि वा पईवं वा जोई वा मग्गो काउं x मार्गणा गवेषणमन्वेषण मित्यर्थः । xxx
अणुकड्ढमाणे २ गच्छिज्जा से तं मग्गओ अंतगयं । चतुर्दशजीवसमासाः सदादिविशिष्टाः माय॑न्तेऽस्मि
(नन्दी. सू. १०, पृ. ८२)। ननेन वेति मार्गणम् । (धव. पु. १, पृ. १३१);
जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का (दीपिका) चडुलिका जेस जीवा मग्गिज्जति तेसिं मग्गणाप्रो इदि सण्णा ।
(अन्त में जलती हुई तृणपूलिका), अलात (अग्र(धव. पु. ७, पृ. ७); अवगृहीतार्थविशेषो मृग्यते
__ भाग में जलती हुई लकड़ी), मणि, प्रदीप, अथवा अन्विष्यते अनया इति मार्गणा। (घव. पु. १३, पृ.
ज्योति (शराव आदि के प्राधित अग्नि) को मार्ग २४२)। ५. जाहि वा जासु व जीवा मग्गिज्जते
की प्रोर करके उसे खींचता हा जाता है उसी जहा तहा दिट्ठा । तानो चोद्दस जाणे सुयणाणे मग्गणा
प्रकार जिस अवधिज्ञान के द्वारा प्रवधिज्ञानी मार्ग होति । (धव. पु. १, पृ. १३२ उद्.; गो. जो
की ओर जानता देखता है उसे मार्गतः अन्तगत १४१)। ६. यकाभिर्यासु वा जीवा मार्यन्तेऽनेकधा स्थिताः । मार्गणा मार्गणादक्षस्ताश्चर्तुश भाषिताः।
अवधिज्ञान कहा जाता है। (पंचसं. अमित. १-१३१)। ७. मार्गणं मार्गणा मार्गदूषणा-नाणादि तिहा मग्गं दूसयए जेय 'मृग अन्वेषणे' अशेषसत्त्वापीडया यदन्वेषणं सा मग्गपडिवन्ना। अबुहो पंडियमाणी समद्वितो तस्स मार्गणेत्युच्यते । (प्रोधनि. द्रो. व. ४, पृ. २६)। घायाए। (वृहत्क. भा. १३२३)। ८. एतेषु जीवादयाः पदार्थाः सर्वेऽपि प्रायो मृग्यन्ते- जो मूर्ख तत्त्वज्ञान से रहित होकर अपने को पण्डित ऽन्विष्यन्ते विचार्यन्त इति यावदित्येतानि मार्गणा- मानता हमा ज्ञानादि रूप तीन प्रकार के मोक्षमार्ग स्थानान्युच्यन्ते । (शतक. मल. हेम. ७.५, पृ.) को और उसको प्राप्त हुए साधुनों प्रादि को दूषित ६. मार्गणा पात्मनो रत्नत्रयशुद्धि समाधिमरणं च करता है व उसके घात में उद्यत है उस के इस सम्पादयितुं समर्थस्य सूरेरन्वेषणम् । (मन. प. स्वो. प्रकार के प्राचरण का नाम मार्गदूषणा है। यह एक टी.७-९८)। १०. अस्याः प्रकर्षाप्रकर्षों बाह्य- सम्मोही भावना का लक्षण है।
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